कहां से आई उर्दू भाषा और भारत के लोगों में कैसे रच-बस गई?
१८ अप्रैल २०२५
भारत के बॉम्बे हाईकोर्ट के सामने मामला यह आया कि सड़कों पर लगने वाले साइन बोर्ड में मराठी भाषा के साथ उर्दू लिखने की अनुमति मिले या नहीं. हाई कोर्ट ने इसकी अनुमति दी लेकिन विरोध करने वालों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया. सुप्रीम कोर्ट ने ना सिर्फ हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया बल्कि भाषा को लेकर विवाद करने वालों को नसीहत भी दी.
सुप्रीम कोर्ट का कहना था, "भाषा कोई मजहब नहीं होता और ना ही यह किसी मजहब का प्रतिनिधित्व करती है. भाषा एक समुदाय, क्षेत्र और लोगों की होती है, ना कि किसी मजहब की. भाषा संस्कृति है और सभ्यता की प्रगति को मापने का पैमाना है.”
सुप्रीम कोर्ट ने उर्दू को ‘गंगा-जमुनी तहजीब' और ‘हिंदुस्तानी तहजीब' का एक शानदार नमूना बताते हुए कहा कि उर्दू भारत की मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है.
एक से अधिक मातृभाषाएं बोलने वाले बच्चों को बड़ा फायदा
भारत में ही जन्मी है उर्दू
उर्दू भाषा की उत्पत्ति भारत में ही हुई है और बड़ी संख्या में इस भाषा के शब्द भारत की अलग-अलग भाषाओं और बोलियों से उसी तरह लिए गए हैं जैसे हिन्दी में. हालांकि कई बार लोग इस भ्रम में रहते हैं कि यह एक विदेशी भाषा है और इसे सिर्फ मुसलमान बोलते हैं.
सच्चाई यह है कि उर्दू भाषा का जन्म भारत में हुआ और अलग-अलग इलाकों में इसका अपने तरीके से विकास हुआ. शायरी, साहित्य और अकादमिक भाषा तो ये है ही, सरकारी कामकाज की भी भाषा रह चुकी है और सबसे खास बात यह कि उर्दू आम जनजीवन की भाषा रही है. हिन्दी और उर्दू का विकास भी एक-दूसरे के समानांतर होता है और इनमें तमाम समानताएं भी हैं.
हरिश्चंद्र वर्मा द्वारा संपादित पुस्तक मध्यकालीन भारत (भाग-2) में शिवकुमार मेनन लिखते हैं, "तेरहवीं सदी के आरंभ में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के समय से दिल्ली में बोली जाने वाली हिन्दी बोली अरबी और फारसी शब्दों को अपनाने लगी थी. इस मिश्रित बोली की क्षमता का इस्तेमाल करने वाले पहले महत्वपूर्ण लेखक थे- अमीर खुसरो. वे इसे जबान-ए-दिल्ली कहते थे. कालांतर में इसे रेख्ता (अरबी एवं फारसी शब्दों की भरमार के कारण) या हिन्दवी और अंतत: अठारहवीं शती के अंत तक इसे उर्दू- जिसका शाब्दिक अर्थ है खेमे की भाषा- कहा जाने लगा.”
दरअसल, उर्दू शब्द तुर्की भाषा के शब्द ओरदु यानी सेना से लिया गया है और इसे शिविरों में बोली जाने वाली भाषा कहा जाता था. इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू भाषा और साहित्य के प्रोफेसर सिराज अजमाली कहते हैं कि उर्दू भाषा का उद्भव तो दक्कन यानी दक्षिण भारत में हुआ लेकिन उद्भव का कारण दक्कन में पहुंचे उत्तर भारत के लोग थे. डीडब्ल्यू से बातचीत में प्रोफेसर सिराज ने कहा, "उर्दू कहां पैदा हुई, इस बारे में तो कई नजरिए हैं. कुछ लोग ब्रज में मानते हैं तो कुछ दक्कन में और कुछ लोग दिल्ली के आस-पास. लेकिन सबसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाता है दक्कन में.”
हिंदी को लेकर क्यों छिड़ा भारतीय राज्यों में विवाद
बहुत बाद में उर्दू नाम मिला
उनके मुताबिक, "खिलजी के जमाने में जब दक्कन के इलाके पर कब्जा किया गया तो दिल्ली से फारसी बोलने वाले लोग वहां भेजे गए जो अमीर कहलाए. अमीर एक पदवी थी. हर सौ गांव पर एक अमीर होता था. और इस तरह से तमाम अमीरों को उत्तर भारत से वहां भेजा गया. अमीरों के साथ दूसरे लोग भी पहुंचे. ये जो लोग वहां गए थे, उनका वहां की भाषाओं के साथ संपर्क हुआ तो इसी समय लिंगुआफ्रेंका यानी संपर्क भाषा के तौर पर उर्दू भाषा का जन्म होता है. यही वो समय था जब सूफी लोग आम लोगों के बीच अपनी पैठ बना रहे थे और स्थानीय भाषाओं में उपदेश दे रहे थे. चूंकि उत्तर भारत से ये जबान गई थी तो इसमें पंजाबी, ब्रज, खड़ी बोली और दूसरी कई भाषाओं-बोलियों के शब्द भी थे.”
यानी कुल मिलाकर अपने उद्भव के समय से ही ये जबान पूरी तरह से आम लोगों की जबान थी. तुगलकों के समय में दक्षिण भारत में विद्रोह हुआ और कई राज्य बने तो इन राज्यों के शासकों को लगा कि आम लोगों और प्रशासनिक कार्यों में दक्ष लोग जब इसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो क्यों ना इस भाषा को सरकारी भाषा बना दिया जाए.
प्रोफेसर सिराज कहते हैं कि ये जबान पैदा हुई दक्कन में और वहीं ज्यादा पनपी भी और फिर वहां से यह उत्तर भारत में आई. उनके मुताबिक उर्दू शब्द तो काफी बाद में आता है. वो कहते हैं, "सत्रहवीं सदी में हिन्दवी, हिन्दी, दक्कनी, गुजरी नाम से होते हुए अठारहवीं शताब्दी में जाकर कहीं उर्दू नाम आता है. 1707 में वली दक्कनी के समय में हिन्दी यानी देसी जबान और फारसी यानी सरकारी जबान को मिलाकर रेख्ता कहा गया. उसके बाद ये जबान अभिजात्य के करीब आई तो उर्दू बन गई.”
यही वो दौर था जब उर्दू ने साहित्य में गहरी पैठ बनानी शुरू की. मीर तकी मीर, सौदा, नजीर अकबराबादी, मिर्जा गालिब जैसे शायरों ने उर्दू को मानवीय भावनाओं की सबसे खूबसूरत भाषा बना दिया.
हिंदी के बहुत करीब है उर्दू
उर्दू भाषा का व्याकरण और क्रियाएं काफी हद तक हिंदी भाषा की ही तरह हैं. यहां तक कि इस भाषा के तमाम शब्द फारसी और अरबी भाषाओं से जरूर लिए गए हैं लेकिन उन शब्दों का रूप भी बदल गया है यानी उनका भारतीयकरण हो गया है. हां, उर्दू की लिपि जरूर अलग रही.
दक्कन में बहमनी साम्राज्य के टूटने के बाद तमाम राजाओं ने उर्दू को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया. गोलकुंडा के शासक मुहम्मद कुली कुतुब शाह उर्दू, फारसी और तेलुगु के महान विद्वान थे. यहां तक कि उन्हें उर्दू का पहला कवि साहेब-ए-दीवान भी कहा जाता है.
मुगलकाल में यह सरकारी भाषा नहीं रही, उस दौर में सरकारी कामकाज फारसी में ही होता रहा. हालांकि कोर्ट और कचहरी की भाषा के तौर पर उर्दू भी इस्तेमाल होने लगी. यहां तक कि अविभाजित भारत में उर्दू पंजाब प्रांत की राजभाषा रही.मुगल काल में प्रशासनिक भाषा भले ही फारसी थी, लेकिन जमीनी संवाद के लिए उर्दू का प्रयोग बढ़ने लगा. 1837 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने उत्तर भारत की अदालतों और दफ्तरों में फारसी की जगह पर उर्दू को राजकाज की भाषा बना दिया.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग में अध्यक्ष रह चुके प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत में हर क्षेत्र में विभाजनकारी तरीके अपनाए और भाषा भी उससे अछूती ना रही.
भाषा पर सांप्रदायिकता का असर
‘ब्रेकअप ऑफ ब्रिटिश इंडिया' नाम की किताब में वीएन पांडेय भी लिखते हैं, "सांप्रदायिकता की आग भड़की तो भाषा भी उसके प्रभाव में आ गई. यहीं से उर्दू की पहचान धार्मिक भाषा के रूप में होने लगी.”प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी के मुताबिक, "1920 के दशक में एक ओर हिन्दी का संस्कृतीकरण शुरू हुआ तो दूसरी ओर उर्दू का फारसीकरण. धीरे-धीरे ये दोनों भाषाएं आम जन से दूर होने लगीं और फिर दोनों भाषाओं की पहचान हिन्दुओं की भाषा और मुसलमानों की भाषा के रूप में होने लगी."
हालांकि सच्चाई यह है कि पहले भी और आज भी दोनों भाषाओं में दोनों धर्मों के लोग शामिल थे, ना सिर्फ पढ़ने वाले बल्कि लिखने वाले भी. चतुर्वेदी कहते हैं, "मुस्लिम समुदाय में ज्यादातर लोग अत्यधिक फारसी के प्रभाव वाली उर्दू से दूर होते चले गए क्योंकि वो पर्शियनाइज्ड वाली उर्दू जानते ही नहीं थे. वैसी उर्दू अभिजात्य वर्ग की भाषा बनी रही, आम लोगों के बीच ज्यादा चली नहीं- सिवाय शायरी या एकेडमिक्स में. हिन्दी इसलिए समृद्ध होती गई कि उसमें लचीलापन था. अतिशय संस्कृतीकरण के दौर से वह जल्दी बाहर आ गई.”
मौजूदा समय में भी भारत में करोड़ों लोग उर्दू भाषा को बोलने और लिखने-पढ़ने वाले हैं. उर्दू भी भारतीय संविधान के तहत आधिकारिक भाषाओं में से एक है. इसके अलावा यह कश्मीर, तेलंगाना, यूपी, बिहार, दिल्ली और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में आधिकारिक भाषाओं में से एक है और पंजाब में तो राजस्व विभाग के सभी पुराने रिकॉर्ड उर्दू भाषा में ही उपलब्ध हैं क्योंकि वहां की ये राजभाषा हुआ करती थी.
सुप्रीम कोर्ट ने साइन बोर्ड्स से जुड़े मामले में उर्दू भाषा को लेकर जो टिप्पणी की है, उर्दू के मशहूर आलोचक गोपीचंद नारंग भी इस बात को लिख चुके हैं, "उर्दू महज मुसलमानों की भाषा नहीं, बल्कि हिन्दुस्तानी तहजीब की साझी विरासत है, जिसमें तुलसी और गालिब एक साथ सांस लेते हैं.”