कोविड में बिना जरूरत के एंटिबायोटिक्स दिए गए: डब्ल्यूएचओ
विवेक कुमार
६ मई २०२४
विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट बताती है कि कोविड महामारी के दौरान लोगों को अत्यधिक मात्रा में एंटिबायोटिक्स दिए गए, जिस कारण सुपरबग का खतरा बढ़ गया है.
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विश्व स्वास्थ्य संगठन के ताजा अध्ययन में इस बात के सबूत मिले हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान दिए गए एंटिबायोटिक्स ने सुपरबग यानी एंटिबाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) को और ज्यादा फैला दिया है.
एएमआर एक तरह की रोधि क्षमता है जो अत्यधिक एंटिबायोटिक्स शरीर में जाने से पैदा हो जाती है. इस कारण शरीर पर दवाओं खासकर एंटिबायोटिक्स का असर कम हो जाता है.
डब्ल्यूएचओ ने कहा है कि दुनियाभर में कोविड महामारी के कारण जितने लोग अस्पताल में भर्ती हुए थे, उनमें से सिर्फ आठ फीसदी ऐसे थे जिन्हें बैक्टीरियल संक्रमण हुआ था और एंटिबायोटिक्स की जरूरत थी. लेकिन अतिरिक्त सावधानी के नाम पर करीब 75 फीसदी मरीजों को एंटिबायोटिक दवाएं दे दी गईं.
सुपरबग को रखें रसोई से दूर
केवल अस्पतालों में ही नहीं बल्कि सुपरबग की पहुंच आपके किचन में हो सकती है. एंटीबायोटिक दवाइयों से नियंत्रण में ना आने वाले सुपरबग को खुद से दूर रखने के लिए उठाएं ये कदम.
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सूअर से घर तक
औद्योगिक स्तर पर की जा रही जानवरों की ब्रीडिंग में एंटीबायोटिक्स का खूब इस्तेमाल होता है. इन्हीं जानवरों का कच्चा मांस जब पैक होकर हमारे नजदीकी सुपरमार्केट की रैक पर पहुंचता है, तब उसमें कई सारे जिद्दी एंटीबायोटिकरोधी बैक्टीरिया पनप चुके होते हैं. यह सुपरबग हमें गंभीर रूप से बीमार कर सकते हैं.
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डीफ्रॉस्ट करना है जरूरी
जितना बड़ा मांस का टुकड़ा होगा, उतना जरूरी हो जाता है उसे ठीक से डीफ्रॉस्ट करना. इसके बाद जब इसे पकाया जाएगा तो मांस का टुकड़ा उस तापमान तक पहुंच पाएगा, जिस पर बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं.
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सही बर्तनों का इस्तेमाल
विशेषज्ञ बताते हैं कि सब्जियां या मांस काटने के लिए जिस कठोर चॉपिंग बोर्ड का इस्तेमाल किया जाता है, वह कांच का बना होना चाहिए. प्लास्टिक या लकड़ी के बने बोर्ड में चाकु से लगने वाले कटों में खाने की चीजें फंस जाती हैं और उसमें कीटाणु पनप सकते हैं.
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सही तापमान तक पकाना
70 डिग्री सेल्सियस तक पकाने पर भोजन के सभी रोगाणु मर जाते हैं. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि कच्चे मांस को खूब अच्छी तरह तेज आंच पर पकाया जाए. कई बार माइक्रोवेव में पकाने पर सभी रोगाणु नहीं मरते.
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हाथों को धोना
हाथ साफ पानी और साबुन से धोने के बाद ही खाना पकाएं. इसके अलावा कच्चे मांस, अंडे, मछली वगैरह छूने के बाद भी हाथों को जरूर धोना चाहिए.
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पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में सबसे कम लगभग 33 फीसदी मरीजों को एंटिबायोटिक दिए गए जबकि पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र और अफ्रीका में 83 फीसदी तक मरीजों को ये दवाएं दी गईं. 2020 से 2022 के बीच यूरोप और अमेरिका में डॉक्टरों ने मरीजों के लिए कम एंटिबायोटिक दवाएं लिखीं जबकि अफ्रीका में यह दर बढ़ गई.
सबसे ज्यादा एंटिबायोटिक उन मरीजों को दिए गए जिनमें कोविड के लक्षण बहुत तीव्र थे. इनकी संख्या लगभग 81 फीसदी रही. मध्यम से कम तीव्रता वाले कोविड लक्षणों के मरीजों को भी अफ्रीका में 79 फीसदी तक एंटिबायोटिक दिए गए. अन्य क्षेत्रों में यह दर कमोबेश कम थी.
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गैरजरूरी दवाओं के खतरे
यूएन के स्वास्थ्य संगठन के एएमआर प्रभाग के सर्विलांस, एविडेंस एंड लैबोरेट्री यूनिट के प्रमुख डॉ. सिल्विया बरटैग्नोलियो ने कहा, "अगर किसी मरीज को एंटिबायोटिक्स की जरूरत होती है तो उसके फायदे, खतरों या साइड इफेक्ट्स के मुकाबले ज्यादा होते हैं. लेकिन जरूरत ना होने पर अगर एंटिबायोटिक्स दिए जाएं तो उनका लाभ कोई नहीं होता लेकिन खतरे ज्यादा होते हैं. और उनका इस्तेमाल एएमआर के प्रसार को भी बढ़ाता है.”
बैक्टीरिया से लड़ाई
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संगठन की ओर से जारी एक बयान में डॉ. बरटैग्नोलियो कहते हैं कि ताजा अध्ययन के आंकड़े एंटिबायोटिक्स के समझदारी से इस्तेमाल पर जोर देते हैं ताकि मरीजों और बाकी लोगों में गैरजरूरी खतरों को कम किया जा सके.
अध्ययन कहता है कि कोविड-19 के मरीजों के इलाज में तो एंटिबायोटिक्स ने कोई फायदा नहीं पहुंचाया, उलटे जिन लोगों में बैक्टीरियल इंफेक्शन नहीं था, उनमें नुकसान का खतरा जरूर बढ़ा. इस अध्ययन के आधार पर दिशा-निर्देश तैयार किए जा रहे हैं जो कोविड-19 के मरीजों को एंटिबायोटिक्स देने के बारे में डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी किए जाएंगे.
डब्ल्यूएचओ की यह रिपोर्ट जनवरी 2020 से मार्च 2023 के बीच 65 देशों में कोविड के कारण भर्ती हुए लगभग साढ़े चार लाख मरीजों के आंकड़ों पर आधारित है.
खतरनाक होता सुपरबग
डब्ल्यूएचओ में एएमआर प्रभाग के सह-महानिदेशक डॉ. यूकियो नाकातानी ने कहा, "यह अध्ययन दिखाता है कि दुनियाभर में एंटिबायोटिक देने के बारे में व्यवस्थागत सुधार के लिए जरूरी कोशिशों को और ज्यादा संसाधनों की जरूरत है.”
6 सुपरबग जिनका कोई तोड़ नहीं
एंटीबायोटिक दवाओं के बेधड़क इस्तेमाल के कारण आज हम इस हाल में आ गए हैं कि अब वे हम पर असर ही नहीं करतीं. ऐसे ड्रग रेसिस्टेंट सुपरबग के कारण दुनिया भर में लोगों की जान को खतरा है.
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कैंडिडा ऑरिस
अमेरिका इस फंगस से परेशान है. एंटीफंगल दवाओं को कड़ी टक्कर दे रहा यह रोगाणु अब तक दुनिया के पांच प्रायद्वीपों में फैल चुका है. उन लोगों को इसका खतरा ज्यादा है जो पहले से ही बीमार हैं और इलाज या सर्जरी करवाने अस्पताल गए हों. इन्हें दूर करने के लिए कई बार पूरे के पूरे अस्पताल को बंद करवाना पड़ता है.
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सूडोमोनास एरुगिनोसा
विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुका है. गीली या नम जगहों पर फलने फूलने वाले इस बैक्टीरिया से छुटकारा पाना बहुत कठिन है. जिन लोगों की इम्युनिटी कमजोर हो, उन्हीं को इसका संक्रमण होता है. स्वस्थ और मजबूत इम्युनिटी वाले लोगों को इसके संपर्क में आने पर कान और त्वचा का संक्रमण होता है.
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नीसेरिया गोनोरिया
गोनोरिया का अब तक कोई टीका नहीं बना है, केवल एंटीबायोटिक्स का ही सहारा था. लेकिन यौन संक्रमण से होने वाली इस बीमारी पर एंटीबायोटिक दवाइयां तेजी से बेअसर होती जा रही हैं. 2018 में ऑस्ट्रेलिया से और 2019 की शुरुआत में ब्रिटेन से ऐसे दो-दो मामलों का पता चला है जिनमें ऐसे 'सुपर' गोनोरिया जिम्मेदार थे.
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सालमोनेला
खाने की चीजों से फैलने वाला यह बैक्टीरिया शरीर में टाइफाइड बीमारी जैसे लक्षण दिखाता है. बीते कुछ दशकों में सालमोनेला की ऐसी किस्में बन गई हैं जिन पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर नहीं हो रहा और जो खाने और पानी के रास्ते बहुत तेजी से फैलती हैं.
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एसिनेटोबैक्टर बाउमानी
विश्व स्वास्थ्य संगठन की सबसे खतरनाक रोगाणुओं की सूची में रखा गया यह कीटाणु मिट्टी और पानी के रास्ते फैलता है. फेफड़ों, खून और किसी जख्म में यह जानलेवा किस्म का संक्रमण फैलाता है. इससे प्रभावित व्यक्ति को सीधे अस्पताल के आईसीयू (इंटेन्सिव केयर यूनिट) में भर्ती करना पड़ता है.
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टीबी का जिद्दी बैक्टीरिया
माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस दुनिया की सबसे संक्रामक बीमारी फैलाता है. हर साल इसके कारण होने वाली टीबी या तपेदिक से 17 लाख लोगों की जान चली जाती है. अनुमान है कि आजकल होने वाले 13 फीसदी तक संक्रमणों पर दवाओं का कोई असर नहीं होगा और उससे मरीज की बीमारी या मौत तय है. (चार्ली शील्ड/आरपी)
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सुपरबग यानी एंटिबायोटिक दवाओं का इंसानी शरीर पर असर खत्म हो जाना वैश्विक स्तर पर सेहत के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक माना जाता है. एक अनुमान के मुताबिक 2019 में इस वजह से 12.7 लाख लोगों की जान गई थी. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2050 तक यह खतरा इतना बड़ा हो जाएगा हर साल लगभग एक करोड़ लोगों की जानें सिर्फ इसलिए जा रही होंगी क्योंकि उन पर एंटिबायोटिक दवाएं असर नहीं कर रही होंगी.
यह खतरा इतना बड़ा है इसलिए वैज्ञानिक इससे निपटने के लिए कई तरह की कोशिशें कर रहे हैं. इनमें नई तरह की एंटिबायोटिक दवाओं के विकास से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद लेने तक तमाम प्रयास शामिल हैं.