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समाज

भारत-जर्मनी संबंध: कहानी भारत के पहले वन महानिरीक्षक की

स्वाति बक्शी
१ अप्रैल २०२१

जर्मनी के बॉन शहर में 1 अप्रैल 1824 को जन्मे डीट्रिश ब्रैंडिस ने वनस्पति शास्त्र में पढ़ाई की और बॉन विश्वविद्यालय में लेक्चरर के तौर पर काम करना शुरू किया.

Sir Ludwig Christian Georg Dietrich Brandis
डीट्रिश ब्रैंडिस के भारत पहुंचने का रास्ता बर्मा होकर गुजरातस्वीर: gemeinfrei

भारत और जर्मनी के बीच कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत 70 बरस पहले हुई लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर दोनों देशों के संबंध सदियों पुराने हैं. भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के इरादे से जंगलों के वैज्ञानिक प्रबंधन की शुरूआत हुई. इस काम की शुरूआती जमीन तैयार करने के लिए जिस शख्स को पहला भारतीय वन महानिरीक्षक नियुक्त किया गया, वो थे जर्मन वनपस्तिशास्त्री डीट्रिश ब्रैंडिस. भारत में जंगलों के संरक्षण, वन प्रबंधन के सरकारी तंत्र और अधिकार की ऐतिहासिक लड़ाई में डीट्रिश ब्रैंडिस के बुनियादी विचारों की खासी अहमियत है.

जर्मनी के बॉन शहर में 1 अप्रैल 1824 को जन्मे डीट्रिश ब्रैंडिस ने वनस्पति शास्त्र में पढ़ाई की और बॉन विश्वविद्यालय में लेक्चरर के तौर पर काम करना शुरू किया. ब्रैंडिस के भारत के साथ संबंधों की शुरुआत रेचल मार्शमैन से शादी के बाद हुई जिनके पिता जोशुआ मार्शमैन, बंगाल में बसे एक ब्रिटिश ईसाई मिशनरी थे. रेचल मार्शमैन की बहन की शादी भारत में नियुक्त मेजर जनरल हेनरी हैवलॉक से हुई थी और इस तरह ब्रैंडिस और हैवलॉक के पारिवारिक रिश्ते स्थापित हुए. रिश्तों के इन्हीं तारों के जरिए ब्रैंडिस को भारत आकर काम करने का मौका मिला. ब्रैंडिस ने ही भारत के देहरादून शहर में इंपीरियल फॉरेस्ट स्कूल की नींव रखी थी. यही स्कूल अब वन अनुसंधान संस्थान कहलाता है और भारतीय वन सेवा अधिकारियों का प्रशिक्षण केंद्र भी है.

भारतीय वन महानिरीक्षक पद पर नियुक्ति

डीट्रिश ब्रैंडिस के भारत पहुंचने का रास्ता बर्मा होकर गुजरा. साल 1852 में ब्रिटिश राज ने लोअर बर्मा इलाके पर कब्जा कर लिया था. संसाधनों का दोहन ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की एक विशेषता रही और वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन इस नीति का अहम हिस्सा रहा है. इसी मकसद से ब्रिटिश भारत में वायसरॉय की भूमिका निभा रहे लॉर्ड डलहौजी ने ब्रैंडिस को बुलावा भेजा कि वे बर्मा आकर पेगु वनों के महानिरीक्षक का पद संभालें. ब्रैंडिस ने ये निमंत्रण स्वीकार कर लिया और उनकी अगुआई में बर्मा में वन विभाग की नींव साल 1856 में रखी गई. बर्मा में छह साल बिताने के बाद ब्रैंडिस को ब्रिटिश भारत भेजा गया जहां 1864 में उनकी नियुक्ति भारत के पहले वन महानिरीक्षक के तौर पर हुई. इस वक्त ब्रिटिश सरकार भारतीय वनों की लगातार कटाई से हो रहे नुकसान को रोकने, रेलवे नेटवर्क के लिए टिंबर की उपलब्धता और जंगलों को बचाने की जरूरत से जूझ रही थी.

ब्रैंडिस ने जर्मनी में काम के अपने अनुभव को भारतीय स्थितियों के सापेक्ष समझने का प्रयास किया और जंगलों व भारतीय आदिम जीवन के अटूट रिश्ते को ध्यान में रखते हुए अहम सुझाव दिए. हालांकि उनके सुझावों को हमेशा माना गया हो, ऐसा नहीं था. भारत के पर्यावरणीय इतिहास की किताबों में इस बात का साफ जिक्र मिलता है कि ब्रिटिश सरकार के इरादों और ब्रैंडिस के विचारों में विरोधाभास था. ब्रिटिश सरकार के अफसर भारतीय वनों का व्यावसायिक दोहन करने के लिए वनों में बसे समुदायों के अधिकारों को पूरी तरह खत्म करके वनों को सरकारी संपत्ति घोषित करने पर आमादा थे वहीं ब्रैंडिस वन संसाधनों पर अधिकार के मसले पर यूरोपीय उदाहरणों से सीखने पर जोर देते रहे.

औपनिवेशिक काल की मध्यमार्गी आवाज

वन संरक्षण को पेशेवर नजर से देखने वाले ब्रैंडिस का मानना था कि नागरिक हितों के लिए जिम्मेदार होने के नाते ये जरूरी है कि सरकारें जंगलों पर समुदायिक अधिकारों को नियंत्रित करें ताकि मानवीय गतिविधियां वनों के विनाश का कारण ना बनें. एक तरफ ब्रैंडिस ने ये माना कि जंगलों पर सरकारी नियंत्रण उचित है और वनों के बचाव के लिए उनके सामुदायिक इस्तेमाल पर रोक सही है तो दूसरी तरफ 1872 में ब्रिटेन में हुई एक बैठक में ब्रैंडिस ने कहा कि "भारत में आदिम जनजातियों का जंगलों पर ठीक उसी तरह का हक है जैसा यूरोप में निर्देशित अधिकार हैं.” यानी ब्रैंडिस इस बात के हक में थे कि भारत में जंगलों को सरकारी नियंत्रण में लाते समय उन पर निर्भर समुदायों को बेदखल नहीं किया जाना चाहिए और राज्य को सर्वाधिकारी होने के बजाए एक निश्चित भूमिका ही निभानी चाहिए.

भारतीय इतिहासकार रामचन्द्र गुहा और माधव गाडगिल ने अपनी एक किताब में लिखा है कि वनों पर सरकारी नियंत्रण और सामुदायिक अधिकारों को लेकर ब्रैंडिस का नजरिया तथ्यपरक और मध्यमार्गी था. ब्रैंडिस इस बात के हक में थे कि वन संरक्षण के लिए कानून बनाए जाएं ताकि नियम और सीमाएं साफ तौर पर स्थापित हो सकें. ब्रिटिश सरकार ने 1865 में पहला भारतीय वन अधिनियम पारित करके जंगलों को सरकारी संपत्ति घोषित करने की दिशा में कदम उठाया.

अभी भी विवादों में भारत के वन कानून

इस अधिनियम को संशोधित करके 1878 में नया वन कानून बनाया गया जिसके मसौदे पर ब्रैंडिस ने काम किया और महत्वपूर्ण सुझाव दिए. संशोधन की प्रक्रिया के दौरान ब्रैंडिस ने जो प्रस्ताव रखे उनमें से एक था यूरोप की तर्ज पर भारतीय जंगलों को सरकारी वन, ग्रामीण या सामुदायिक वन और निजी वन में बांटना. ये सुझाव फ्रांस और जर्मनी के उदाहरण पर आधारित था जहां जंगल में बसे गांवों या समुदायों को वन संरक्षण गतिविधियों में शामिल किए जाने के बेहतरीन परिणाम देखने को मिले थे. ब्रिटिश सरकार ने ब्रैंडिस के इस समुदायवादी नजरिए को दरकिनार करते हुए, जंगलों पर सरकारी सत्ता स्थापित करने और उन पर निर्भर समुदायों की सामाजिक-आर्थिक जिंदगी में आमूल बदलाव करने वाले कानून बनाए.

हालांकि भारत में जंगलों और पर्यावरण के संरक्षण से जुड़ी बहसों में ब्रैंडिस के विचारों की प्रासंगिकता खत्म हो गई हो ऐसा नहीं है. साल 1990 में भारत सरकार ने संयुक्त वन प्रबंधन व्यवस्था लागू करके ग्रामीण वन सुरक्षा समितियों के जरिए जंगलों को बचाने में समुदाय की भूमिका सुनिश्चित की. हालांकि इन समितियों का वर्तमान स्वरूप विवादों से परे नहीं है लेकिन इस व्यवस्था की तरफ लौटने की जरूरत ने ये साबित कर दिया कि डीट्रिश ब्रैंडिस के दूरदर्शी सुझाव महज इतिहास के पन्नों में दर्ज रिपोर्टें नहीं हैं. जब भी वन, संरक्षण और समुदाय की बात आएगी, डीट्रिश ब्रैंडिस के लिखे दस्तावेजों को नया संदर्भ मिलता रहेगा.

भारत और जर्मनी की सुरीली जुगलबंदी

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