भारत में अधिकारियों के हिंसक बर्ताव के मामले नए नहीं हैं. एक रिपोर्ट में दो सालों के अंदर घटे ऐसे आधा दर्जन मामलों की लिस्ट बनाई गई है. अधिकारियों के ऐसे बर्ताव के पीछे की असली वजहें क्या हैं, हमने यह जानने की कोशिश की.
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छत्तीसगढ़ में डीएम के एक युवक को थप्पड़ मारने का वीडियो सोशल मीडिया पर कई दिनों तक चर्चा में रहा. सूरजपुर जिले में तैनात अधिकारी रणवीर शर्मा ने एक युवक को थप्पड़ मारा था और उसका मोबाइल जमीन पर पटककर तोड़ दिया था. इतना ही नहीं जब युवक ने विरोध जताया तो डीएम ने पास ही मौजूद पुलिसवालों से युवक को पीटने के लिए भी कहा था. इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद रणवीर शर्मा का ट्रांसफर कर दिया गया था.
यह मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था, तभी उत्तर प्रदेश के लखनऊ में जिलाधिकारी अभिषेक प्रकाश और सिटी मजिस्ट्रेट शशि भूषण राय के बीच विवाद और अपशब्द कहे जाने का मामला सामने आ गया. इस दौरान मौके पर मौजूद कर्मचारियों ने यह भी कहा कि मामला मारपीट की हद तक पहुंच गया था. यह घटनाएं दिखाती हैं कि अधिकारी सिर्फ आम जनता पर ही नहीं मातहतों और सहयोगियों तक पर हिंसक हो जाते हैं.
महामारी का दबाव हिंसा की वजह?
एक मीडिया रिपोर्ट में दो सालों के अंदर ऐसे आधा दर्जन मामलों की लिस्ट बनाई गई है. लेकिन अधिकारियों के ऐसे बर्ताव के पीछे की असली वजहें क्या हैं. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मनोविज्ञान की पढ़ाई कर चुके और सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले वतन सिंह कहते हैं, "कोरोना की गंभीर दूसरी लहर के बीच प्रशासन में ऊपर से नीचे तक निराशा की स्थिति है. अधिकारियों पर भी परिस्थितियां नियंत्रित करने का काफी दबाव है. गुस्से की हालिया घटनाओं के पीछे अधिकारियों की निराशा भी एक तात्कालिक वजह हो सकती है." हालांकि मनोवैज्ञानिक डॉ समीर पारिख नहीं मानते कि हिंसक बर्ताव के पीछे की वजह महामारी का दबाव है.
डीएसपी अवधेश कुमार भी दबाव की बात से सहमत नहीं हैं. वह कहते हैं, "सामूहिक तौर पर प्रशासन को कठघरे में नहीं खड़ा कर सकते. यह हर अधिकारी विशेष से जुड़ी हुई बात है. यह बहुत मायने रखता है कि सेवा में आने के पीछे किसी अधिकारी का क्या उद्देश्य रहा है. अगर कोई सामाजिक बदलाव और देशप्रेम से प्रभावित होकर प्रशासन का अंग बना है, तो आम लोगों के प्रति उसका व्यवहार अलग होगा और अगर कोई प्रशासन के रुतबे और ताकत से प्रभावित होकर इसका अंग बना है तो उसका व्यवहार अलग होगा."
वह कहते हैं कि आपने शुरुआती जीवन में जो कुछ सीखा है, उसी से आपका व्यवहार तय होता है. "दरअसल इंसान अपने जीवन के 20-25 सालों में जिन मूल्यों को सीखता है, उसे कुछ महीने या साल भर की ट्रेनिंग से बदला नहीं जा सकता. इसलिए यह बहुत मायने रखता है कि अधिकारी बनने से पहले कोई इंसान कैसा रहा है?'
आस पास के देशों में ऐसा है महिलाओं का हाल
एशियाई देशों में महिलाओं की स्थिति बीते सालों में सुधरी है. बावजूद इसके अब भी समाज में कई विसंगतियां और परेशानियां बनी हुई है. एक नजर भारत और आसपास के देशों पर.
तस्वीर: Ghazanfar Adeli/DW
भारत
अब तक बाजार में दुकानों पर काम करना पुरुषों का काम समझा जाता था, लेकिन अब महिलाएं गैर पारंपरिक क्षेत्रों में काम करने लगी हैं. इसके बावजूद समाज में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और अपराध बने हुए हैं. कुछ समय पहले ही भारत में #MeToo कैंपेन शुरू हुआ था. इस कैंपेन में कई प्रभावशाली महिलाओं से लेकर आम औरतों ने अपने साथ हुए यौन शोषण की कहानी बयान की थी.
तस्वीर: Imago/Hindustan Times
पाकिस्तान
इस तस्वीर में बीच में बैठी दिख रही महिला पाकिस्तान की पहली महिला कार मैकेनिक, उज्मा नवाज है. पाकिस्तान में महिलाओं को धीरे धीरे पहले से ज्यादा आजादी मिलने लगी है. देश के कराची शहर में औरतों ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2019 के मौके पर #AuratAzadiMarch नारे के साथ रैली निकाली. महिलाएं अब अपने अधिकारों को लेकर काफी जागरुक हुई हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S.S. Mirza
अफगानिस्तान
2001 में अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान में किए गए दखल से लगने लगा था कि देश में महिलाओं की स्थिति बेहतर होगी. लेकिन हाल की राजनीतिक हलचलों को देखकर लगता है कि अफगानिस्तान की सरकार में एक बार फिर तालिबान का दखल हो सकता है. अगर ऐसा होता है तो देश में महिलाओं की स्थिति में शायद ही कोई सुधार हो. शिक्षा से लेकर काम करने के अधिकारों को हासिल करने में उन्हें बहुत मुश्किलें आएंगी.
तस्वीर: Getty Images/R. Conway
बांग्लादेश
पिछले दो दशकों से लगातार बांग्लादेश की कमान किसी महिला नेता के पास ही रही है. देश का प्रधानमंत्री पद एक महिला ही संभाल रही है. देश में महिला अधिकारों को लेकर कुछ सुधार तो हुए हैं लेकिन अब भी कार्यस्थल पर उनकी स्थिति बहुत बेहतर नहीं हुई है. साथ ही स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी महिलाएं पिछड़ी हुई हैं.
तस्वीर: DW/M. M. Rahman
श्रीलंका
श्रीलंका की महिलाएं अन्य देशों के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं. महिलाओं की सामाजिक स्थिति कुछ हद तक परिवारों की आर्थिक स्थिति पर भी निर्भर करती है. कुछ लड़कियां जल्दी काम करना शुरू कर देती हैं तो वहीं कुछ लंबे समय तक पढ़ती हैं. दक्षिण एशिया में श्रीलंका ही एक ऐसा देश है, जहां की महिलाओं के पास स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़ी अच्छी सुविधाएं हैं.
तस्वीर: Imago/Photothek
ईरान
आज ईरान की महिलाओं की अपनी एक फुटबॉल टीम है. लेकिन अब भी देश की महिलाओं के लिए आजादी और सशक्तिकरण की लड़ाई खत्म नहीं हुई है. हेडस्कार्फ लगाने की प्रथा के खिलाफ खड़ी हुई लड़कियों का समर्थन कर रही एक वकील नसरीन सौतुदेह को ईरान में पांच साल कैद की सजा हुई है. ईरान में महिलाओं के लिए हेडस्कार्फ लगाना अनिवार्य है.
तस्वीर: Pana.ir
इंडोनेशिया
इंडोनेशिया की महिलाएं हमेशा से आगे रही हैं. समाज की प्रगति में इनका अहम योगदान है. लेकिन अब भी देश में लागू शरिया जैसे धार्मिक कानून उन्हें आगे बढ़ने से रोक देते हैं. देश के आचेह प्रांत में इस्लामिक शरिया कानून लागू है. इसके तहत महिलाओं के लिए हेडस्कार्फ अनिवार्य है. साथ ही वे परिवार के बाहर किसी भी पुरुष से बात भी नहीं कर सकती हैं.
तस्वीर: Imago/C. Ditsch
चीन
चीन की आर्थिक वृद्धि ने देश में महिलाओं की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार किया है. लेकिन अब भी समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव बरकरार है. इसी भेदभाव के चलते आज चीन का सेक्स अनुपात गड़बड़ा गया है. चीन में भी महिलाओं की स्थिति शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में पुरुषों की तुलना में काफी पिछड़ी हुई है. (मानसी गोपालकृष्णन/ एए)
तस्वीर: Getty Images/AFP/J. Eisele
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डॉ समीर पारिख भी कहते हैं, "हमें पूरे प्रशासन को एक नजरिए से नहीं देखना चाहिए. अगर किसी शिक्षक ने बच्चे को मारा तो हम यह नहीं कह सकते कि सभी शिक्षक बच्चों को मारते हैं. यह किसी समूह से जुड़ा मामला नहीं है. अलग-अलग अधिकारियों का अलग स्वभाव होता है और मैं दावे से कह सकता हूं कि अगर हम संवेदनशील और असंवेदनशील अधिकारियों के आंकड़े जुटाएं तो संवेदनशील अधिकारियों की संख्या कहीं ज्यादा होगी."
कई अधिकारियों में पूर्वाग्रही सोच मौजूद
उत्तर प्रदेश में तैनात नायब तहसीलदार अरविंद कुमार कहते हैं, "प्रशासन को एक औपचारिक कड़ाई की जरूरत होती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अधिकारी पद का फायदा उठाते हुए हिंसा पर उतर आए. मसलन मैं राजस्व विभाग में अधिकारी हूं. अक्सर हमारे सामने जमीन या प्रॉपर्टी से जुड़े मामले आते हैं. ये ऐसे मामले होते हैं, जिनमें जमीन के छोटे से हिस्से के लिए लोग जान लेने के लिए उतारू हो जाते हैं. ऐसे मामलों में समाधान करने या अदालत के निर्णय को लागू कराने में हमें सख्ती दिखानी पड़ती है. लेकिन ऐसे मामलों में भी कभी मारपीट की नौबत नहीं आती."
समीर पारिख भी सख्ती की जरूरत से सहमत हैं और कहते हैं, "कड़क होने और हिंसक होने में बहुत अंतर है."
हालांकि अरविंद कई अधिकारियों पूर्वाग्रही होने की बात कहते हैं. दलित समुदाय से आने वाले अरविंद यह भी कहते हैं, "इस बात से इंकार नहीं कि प्रशासन में अब भी जातीय भेदभाव या महिलाओं के प्रति भेदभाव दिख जाता है. लेकिन यह भी अधिकारी विशेष के मामले में ही है. अब तक मुझे यह नही झेलना पड़ा है और मुझे अपने जिले के तेज-तर्रार अफसर के तौर पर देखा जाता है. लेकिन ऐसा हो सकता है कि एसी/एसटी जाति समूह से आने वाले अधिकारी को छोटी सी गलती होते ही पूर्वाग्रही आक्षेप झेलने पड़ें. यह भी एक सच्चाई है कि कई बार महिलाओं को प्रशासन में कम आंका जाता है."
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बार-बार दी जाए संवेदनशील बनाने की ट्रेनिंग
डीएसपी अवधेश अधिकारियों में हिंसक प्रवृत्ति को नियंत्रित करने का उपाय भी बताते हैं, "हिंसा का इलाज यही हो सकता है कि अधिकारी बनने के दौरान जो कुछ महीनों की ट्रेनिंग दी जाती है, वह बाद के दौर में भी जारी रहे. अधिकारियों को समूह विशेष, जैसे दलित और महिलाओं के प्रति संवेदनशील व्यवहार के लिए बार-बार तैयार किया जाए. इसके लिए हर 6 महीने या साल भर पर ट्रेनिंग होनी चाहिए."
अवधेश इसके लिए एक रोचक उदाहरण देते हैं, "सैनिकों का निशाना अच्छा क्यों होता है? क्योंकि उन्हें हर महीने निशानेबाजी की ट्रेनिंग दी जाती है. जबकि आपने अक्सर पुलिसवालों के खराब निशाने की बातें सुनी होंगी, ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें बार-बार ट्रेनिंग ही नहीं दी जाती. यही बात अधिकारियों की संवेदनशीलता के मामले में भी लागू होती है."
भारत सरकार भी अधिकारियों में ऐसे सुधारों की जरूरत को महसूस कर रही है. यही वजह है कि सरकारी अधिकारियों के काम करने की शैली में सुधार के लिए केंद्रीय कैबिनेट ने पिछले हफ्ते 'कर्मयोगी योजना' को मंजूरी दी है. इस मिशन के तहत सिविल सेवा के अधिकारियों को क्षमता बढ़ाने के लिए खास ट्रेनिंग दी जाएगी. केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के मुताबिक मिशन कर्मयोगी का लक्ष्य भविष्य के लिए भारतीय सिविल सेवकों को ज्यादा रचनात्मक, कल्पनाशील, एक्टिव, प्रोफेशनल, प्रगतिशील, ट्रांसपेरेंट और टेक्नोलॉजी का जानकार बनाना है.
जब दलितों ने जताया जमकर विरोध
लंबे समय तक हाशिए पर रहा दलित समाज अब राजनीतिक रूप से जागरुक नजर आने लगा है. पिछले कुछ समय में ऐसे कई मौके आए जब दलितों ने अपनी आवाज बुलंद की और विरोध प्रदर्शन भी किए. एक नजर दलित आंदोलनों पर
तस्वीर: AP
दलित-मराठा टकराव (जनवरी 2018)
महाराष्ट्र में साल 2018 की शुरुआत दलित-मराठा टकराव के साथ हुई. भीमा-कोरेगांव लड़ाई की 200वीं सालगिरह के मौके पर पुणे के कोरेगांव में दलित और मराठा समुदायों के बीच टकराव हुआ जिसमें एक युवक की मौत हो गई. मामले ने तूल पकड़ा और पूरे महाराष्ट्र में इसकी लपटें नजर आने लगीं. दलितों संगठनों ने 3 जनवरी को महाराष्ट्र बंद का ऐलान किया. इस बीच प्रदेश के अधिकतर इलाकों से हिंसा, आगजनी की खबरें आती रहीं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. Maqbool
सहारनपुर में ठाकुर-दलित हिंसा (मई 2017)
साल 2017 में उत्तर प्रदेश का सहारनपुर दलित विरोध का केंद्र बना रहा. क्षेत्र में दलित-ठाकुरों के बीच महाराणा प्रताप जयंती कार्यक्रम के बीच टकराव हुआ. इसके चलते दोनों पक्षों के बीच पथराव, गोलीबारी और आगजनी भी हुई. विरोध इतना बढ़ा कि मामला दिल्ली पहुंच गया. जातीय हिंसा के विरोध में दिल्ली के जंतर-मंतर पर दलितों की भीम आर्मी ने बड़ा प्रदर्शन किया.
तस्वीर: Reuters/A. Dave
गौ रक्षकों के खिलाफ गुस्सा (जुलाई 2016)
जुलाई 2016 में गुजरात के वेरावल जिले के ऊना में कथित गौ रक्षकों ने गाय की खाल उतार रहे चार दलितों की बेरहमी से पिटाई की थी. इनमें से एक युवक की मौत हो गई थी. घटना का वीडियो वायरल हुआ. गुजरात में दलित समुदायों ने इसका जमकर विरोध किया. विरोध प्रदर्शन के दौरान करीब 16 दलितों ने आत्महत्या की कोशिश भी की. इस मामले की गूंज संसद तक पहुंची.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky
कोपर्डी गैंगरेप केस (जुलाई 2016)
यह एक ऐसा मामला था जिसमें मराठा समुदाय की ओर से एससी/एसटी कानून को खत्म किए जाने की मांग की गई. 13 जुलाई 2016 को मराठा समुदाय की एक 15 साल वर्षीय लड़की को अगवा कर उसका गैंगरेप किया गया. जिसके बाद उसकी हत्या कर दी गई. महाराष्ट्र में इस घटना के खिलाफ काफी प्रदर्शन हुआ था जिसने बाद में मराठा आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया. मामले में तीन दलितों को दोषी करार दिया गया जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई.
तस्वीर: Reuters/S. Andrade
रोहित वेमुला की आत्महत्या (जनवरी 2016)
हैदराबाद यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने देश में दलितों और छात्रों के बीच एक नया आंदोलन छेड़ दिया. यूनिवर्सिटी के छात्र संगठनों ने प्रशासन पर भेदभाव का आरोप लगाया. रोहित ने अपने सुसाइड नोट में विश्वविद्यालय को जातिवाद, चरमपंथ और राष्ट्रविरोधी तत्वों का गढ़ बताया था. इसके बाद देश भर में दलित आंदोलन हुए और मामला देश की संसद तक पहुंचा.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
खैरलांजी हत्याकांड (सितंबर 2006)
जमीनी विवाद के चलते महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी गांव में 29 सितंबर को एक दलित परिवार के 4 लोगों की हत्या कर दी गई थी. परिवार की दो महिला सदस्यों को हत्या के पहले नंगा कर शहर भर में घुमाया गया था. इस घटना के विरोध में पूरे महाराष्ट्र में दलित प्रदर्शन हुए थे. सीबीआई ने अपनी जांच में गैंगरेप की बात को नकार दिया था. दोषियों को मौत की सजा मिली थी, जिसे बंबई हाईकोर्ट ने उम्रकैद में बदल दिया.