जामनगर के राजा के नाम पर पोलैंड में क्यों हैं स्कूल और पार्क
ऋषभ कुमार शर्मा
८ मई २०२०
भारत के गुजरात में मौजूद जामनगर का पोलैंड से एक खास रिश्ता है. यहां के राजा दिग्विजय सिंहजी के नाम पर पोलैंड में कई जगहों के नाम हैं. दिग्विजय सिंहजी का एक कनेक्शन क्रिकेट की रणजी ट्रॉफी से भी है.
पोलैंड की राजधानी वॉरसॉ की एक मुख्य सड़क.तस्वीर: picture-alliance/Xinhua/Zhou Nan
विज्ञापन
सन 1939 में जर्मनी ने पोलैंड पर हमला कर दिया. ऑस्ट्रिया पर कब्जा करने के बाद मित्र देशों ने जर्मनी को चेतावनी दी थी कि अगर उसने पोलैंड पर हमला किया तो मित्र देश जर्मनी से युद्ध छेड़ देंगे. जर्मनी ने सोवियत रूस से एक संधि की और दोनों देशों ने पोलैंड पर हमला कर दिया. हमले की शुरुआत जर्मन तानाशाह हिटलर ने की. इसके 16 दिन बाद रूसी तानाशाह स्टालिन की फौज ने भी पोलैंड पर हमला कर दिया. पोलैंड दो देशों के हमले को सहन नहीं कर सका. दोनों देशों ने पोलैंड पर कब्जा कर लिया. इस कब्जे की लड़ाई में अपने देश को बचाने की कोशिश में हजारों पोलिश सैनिक मारे गए और कई बच्चे अनाथ हो गए. इन अनाथ बच्चों को कैंपों में रखा गया. हालांकि इन कैंपों की स्थिति बेहद खराब थी. 1941 में जर्मनी और रूस में लड़ाई होने तक ये स्थिति ऐसी ही रही.
1941 में कैंप में रह रहे इन बच्चों को सोवियत रूस ने वहां से जाने के लिए कह दिया. ये बच्चे अलग-अलग तरीकों से अपनी जान बचाकर इन कैंपों से निकलने लगे. पोलिश सरकार के मुताबिक कुछ बच्चे जान बचाकर मेक्सिको और न्यूजीलैंड जैसे दूर दराज के देशों तक पहुंच गए. ब्रिटेन की वॉर कैबिनेट में इन बच्चों को लेकर चर्चा हुई. इस कैबिनेट का हिस्सा थे नवानगर के राजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा. आज के गुजरात के जामनगर को तब नवानगर के नाम से जाना जाता था जो एक रियासत थी. दिग्विजय सिंहजी ने इन बच्चों को अपनी रियासत में आश्रय देने का प्रस्ताव ब्रिटिश सरकार को दिया.
इस प्रस्ताव को मान लिया गया. इन बच्चों को सोवियत रूस के पोलैंड पर बनी पोलिश फौज, रेड क्रॉस, बॉम्बे के पोलिश कॉन्सुलेट और ब्रिटिश सरकार की मदद से भारत भेजे जाने का इंतजाम किया गया. पहले इन बच्चों को तुर्कमेनिस्तान के अशगबात भेजा गया. वहां से ट्रकों में बिठाकर इन्हें मुंबई तक पहुंचाया गया. दिग्विजय सिंहजी ने इन्हें जामनगर से 25 किलोमीटर दूर बालाचड़ी गांव में आसरा दिया. 1942 की शुरुआत में पहली बार में 170 अनाथ बच्चे बालाचड़ी पहुंचे. कुल मिलाकर यहां 600 से ज्यादा बच्चे पहुंचे थे. नवानगर के महाराजा ने इन बच्चों से कहा कि वो अब अनाथ नहीं हैं और महाराजा ही उनके पिता हैं.
सिनेमा के पर्दे पर पहला विश्व युद्ध
1927 में ऑस्कर जीतने वाली मूक फिल्म से लेकर 2011 तक के स्टीवन स्पीलबर्ग के ब्लॉकबस्टर तक पहले विश्वयुद्ध ने सिनेमा के पर्दे पर अपनी छाप छोड़ी है.
तस्वीर: picture-alliance/Newscom
खामोश विजेता
1927 में बनी "विंग्स" ऑस्कर जीतने वाली इकलौती मूक फिल्म है. अमेरिकी फिल्म को विलियम ए वेलमैन ने निर्देशित किया था और यह दो लड़ाकू विमान के पायलटों की दास्तान है. गैरी कूपर ने इसी फिल्म के साथ हॉलीवुड में कदम रखा.
तस्वीर: Getty Images
भ्रमजाल से मुक्त नायक
1930 में बनी "ऑल क्वाइट ऑन वेस्टर्न फ्रंट" जंग का विरोध करने वाली अमेरिकी फिल्म थी. लुइस माइलस्टोन निर्देशित फिल्म की कहानी एरिष मारिया रेमार्क की एक किताब पर है. यह कम उम्र के लड़कों के जंग में जाने और उसके बाद उनका भ्रम टूटने के बारे में है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
असल जिंदगी में जीत
अमेरिकी निर्देशक हॉवर्ड हॉक्स ने 1941 में "सार्जेंट योर्क" बनाई थी. यह आल्विन यॉर्क नाम के एक लड़के की असल जिंदगी पर आधारित है जो अपनी शानदार निशानेबाजी के दम पर हीरो बन जाता है. योर्क की भूमिका गैरी कूपर ने निभाई और उन्हें इसके लिए ऑस्कर भी मिला.
स्टैनली कुब्रिक ने 1957 में आई अमेरिकी फिल्म "पाथ्स ऑफ ग्लोरी" का निर्देशन किया. फिल्म में किर्क डगलस ने अभिनय किया है. यह जंग की निरर्थकता और फ्रेंच आर्मी की एक यूनिट में विद्रोह को दिखाती है. कुछ आलोचकों का कहना है कि यह अब तक की सबसे बेहतरीन युद्ध विरोधी फिल्म है.
तस्वीर: imago
सिनेमाई किंवदंती
1962 में बनी ब्रिटिश फिल्म "लॉरेंस ऑफ अरेबिया" को अब तक बनी सबसे प्रभावशाली फिल्मों में से माना जाता है. डेविड लीन के निर्देशन में बनी फिल्म का निर्देशन पीटर ओ टूल ने किया है. फिल्म फ्रांस और ब्रिटेन की अरब लोगों को तुर्की के शासन के खिलाफ भड़काने की योजना के बारे में है.
तस्वीर: imago/AD
अकेली तस्वीर
जंग की कोशिशों को 1981 में बनी फिल्म "गल्लीपोली" में दिखाया गया. पीटर वायर ने इसका निर्देशन किया. फिल्म में युवा मेल गिब्सन ने अभिनय किया है. फिल्म ऑस्ट्रेलियाई लोगों के तुर्की से जंग में लड़ने जाने के बारे में बताती है. इस युद्ध में ओटोमन साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई में ऑस्ट्रेलिया ने भारी नुकसान उठाया.
1996 में बनी रोमांटिक अमेरिकी फिल्म "इन लव एंड वार" को रिचर्ड एटेनबरो ने निर्देशित किया. यह विश्व युद्ध के दौरान इटली में एंबुलेंस ड्राइवर के रूप में एर्न्स्ट हेमिंग्वे के अनुभवों को दिखाती है. हेमिंग्वे की भूमिका क्रिस ओ डोनेल ने निभाई. इसमें हेमिंग्वे को एक अस्पताल की नर्स से प्यार होते दिखाया गया जिसकी भूमिका सांड्रा बुलॉक ने निभाई थी.
तस्वीर: Getty Images
एक खामोश रात
यूरोपीय सहयोग से 2005 में बनी फिल्म "जॉये नोएल" में 1914 के क्रिसमस के मौके पर फ्रेंच, स्कॉटिश और जर्मन सैनिकों के बीच हुए युद्धविराम को दिखाया गया. एक दिन के लिए सैनिकों ने अपने हथियार रख दिए और बंकरों से निकल कर एक दूसरे के खिलाफ फुटबॉल खेला. डैनियल ब्रुल और डायान क्रुगर ऑस्कर और गोल्डेन ग्लोब के लिए नामांकित थे.
जर्मन पायलट मानफ्रेड फॉन रिष्टहोफेन की कहानी को 2008 में बनी जर्मन फिल्म "रेड बैरन" ने बखूबी दिखाया. इसमें मानफ्रेड की भूमिका मथियास श्वाइगहोएफर ने निभाई थी. निर्देशक थे निकोलाइ मुलरशोन. फिल्म को अंतरराष्ट्रीय बाजार मिले इसके लिए इसे अंग्रेजी में बनाया गया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
बच्चों की किताब
स्टीवन स्पीलबर्ग ने विश्वयुद्ध पर 2011 में "वार हॉर्स" बनाया. इस अमेरिकी फिल्म में एक बच्चे अल्बर्ट और उसके घोड़े जोए की दोस्ती दिखाई गई है. जोए को जब घुड़सवार दस्ते को बेच दिया जाता है तो अलबर्ट अपनी मर्जी से पहले विश्व युद्ध में शामिल हो जाता है. फिर उसे यूरोप में एक देश से दूसरे देश भेजा जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/Newscom
10 तस्वीरें1 | 10
इन सब बच्चों को रहने के लिए कमरे दिए गए. सभी बच्चों का खुद का बिस्तर हुआ करता था. साथ ही इन्हें खाना, कपड़े और चिकित्सा सुविधाएं भी उपलब्ध करवाईं. राजा ने इन बच्चों के लिए एक लाइब्रेरी भी तैयार करवाई जिसमें पोलिश भाषा की किताबें थीं. इससे ये बच्चे अपनी मातृभाषा ना भूल जाएं. कुछ बच्चे फुटबॉल खेलना पसंद करते थे. महाराजा ने वहां एक फुटबॉल का मैदान बनवाया और बच्चों के लिए कोच का प्रबंध करवाया. बालाचड़ी गांव में महाराजा इन बच्चों के साथ काफी समय बिताते थे. यहां पर सारे पोलिश त्योहार भी मनाए जाते थे. महाराजा ने पोलिश सरकार से इस सबके लिए कभी कोई आर्थिक मदद की मांग नहीं की.
1945 में दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हो गया. पोलैंड सोवियत यूनियन के हिस्से में चला गया. 1946 में पोलिश सरकार ने महाराजा से बात कर इन बच्चों को वापस पोलैंड भेजने के लिए कहा. जब ये वापस जाने लगे तो याद के रूप में महाराजा दिग्विजय सिंहजी ने पोलिश जनरल व्लादस्ला सिकोर्स्की से कहा कि पोलैंड में उनके नाम पर एक रास्ते का नाम रख दिया जाए. कम्युनिस्ट पोलैंड ने उनका ये निवेदन ठुकरा दिया. इस निवेदन को मानना कहीं ना कहीं सोवियत रूस के अत्याचारों की स्वीकारोक्ति होती जो कम्युनिस्ट पोलैंड में संभव नहीं थी.
दूसरा विश्व युद्ध तस्वीरों में
01 सितंबर, 1939 को अडोल्फ हिटलर के आदेश पर जर्मन सेना ने पोलैंड पर हमला किया. 08 मई, 1945 तक यूरोप के देश एक दूसरे से लड़ते रहे. जानिए कब क्या हुआ.
तस्वीर: AP
1939
पहली सितंबर के दिन जर्मनी ने पोलैंड पर हमला किया. पोलैंड के सहयोगियों फ्रांस और ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ तीन सितंबर को युद्ध का ऐलान किया.
अप्रैल 1940
अप्रैल 1940 में जर्मन सेना डेनमार्क की ओर बढ़ी और नॉर्वे पहुंचने के लिए इस देश को प्लेटफॉर्म बनाया. वहां से जर्मनी को युद्ध के लिए जरूरी कच्चा माल मिलता था. ब्रिटेन इस आपूर्ति को रोकना चाहता था, इसलिए उसने नॉर्वे सेना भेजी. लेकिन जून में नॉर्वे में भी सहयोगी देशों ने घुटने टेक दिए.
लक्जेम्बर्ग
10 मई को जर्मन सेना ने नीदरलैंड्स, बेल्जियम और लक्जेम्बर्ग पर हमला किया. इसके बाद सेना ने पेरिस का रुख किया. 22 जून के दिन फ्रांस ने हाथ खड़े कर दिए. और फ्रांस दो हिस्सों में बंटा. एक हिटलर के राज का हिस्सा और दूसरा विषी फ्रांस जहां जनरल पेटां का शासन था.
तस्वीर: picture alliance/akg-images
ब्रिटेन का रुख
इसके बाद हिटलर ने ब्रिटेन का रुख किया. उसके बमों ने कोवेंट्री जैसे शहरों को तहस नहस कर दिया. साथ ही उत्तरी फ्रांस और दक्षिणी इंग्लैंड के बीच हवाई लड़ाई भी हुई. ब्रिटेन की रॉयल एयर फोर्स ने जर्मन विमानों को ध्वस्त कर दिया. 1941 की शुरुआत में जर्मन हवाई हमले काफी कम हो गए.
तस्वीर: Getty Images
1941
इंग्लैंड में हवाई मार खाने के बाद हिटलर ने ब्रिटेन के दक्षिणी और पूर्वी हिस्सों की ओर रुख किया. इसके बाद उत्तरी अफ्रीका, बाल्कान, सोवियत संघ और फिर युगोस्लाविया पर भी हमला किया गया.
तस्वीर: picture-alliance/akg-images
1942
शुरुआत में रेड आर्मी ने ज्यादा कार्रवाई नहीं की. लेकिन रूस पर चढ़ाई ने जर्मनी की हालत खराब कर दी. भारी नुकसान और मुश्किलों से जर्मनी का हमला कमजोर हुआ. हिटलर के हाथ में करीब करीब पूरा यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और सोवियत संघ के कुछ हिस्से थे. लेकिन साल 1942 निर्णायक साबित हुआ.
तस्वीर: Getty Images
यातना शिविर
इटली की मदद से जर्मनी ने उत्तरी अफ्रीका में ब्रिटिश सेना पर जीत हासिल की लेकिन बाद में जर्मनी ढीला पड़ा. इधर पूर्वी इलाकों में हिटलर ने आउश्वित्स जैसे यातना गृह बना लिए थे. करीब 60 लाख लोग हिटलर के नस्लभेद का शिकार हुए.
तस्वीर: Yad Vashem Photo Archives
1943
उस साल जर्मनी के खिलाफ खड़ी सेनाएं मजबूत हुईं. और लड़ाई में रुख पलटने का प्रतीक स्टालिनग्राड बना. इस शहर के लिए लड़ाई में जर्मनी का उत्साह कमजोर हुआ. उत्तरी अफ्रीका में जर्मन और इटैलियन सैनिकों की हार के बाद मित्र देशों के लिए इटली का रास्ता खुला था.
तस्वीर: picture alliance/akg
1944
रेड आर्मी ने जर्मनी की सेना को पछाड़ना शुरू किया. युगोस्लाविया, रोमानिया, बुल्गारिया, पोलैंड, एक एक कर सारे सोवियत संघ के पास चले गए. छह जून को अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और दूसरे देशों की सेना उत्तरी अफ्रीका की नॉर्मैंडी में उतरी. 15 अगस्त को पश्चिमी मित्र देशों ने दक्षिणी फ्रांस पर जवाबी हमला किया. 25 अगस्त के दिन पैरिस को जर्मन कब्जे से छुड़ा लिया गया.
तस्वीर: Getty Images
1944-45
1944-45 की सर्दियों में जर्मन सेना ने हमला करने की कोशिश की लेकिन पश्चिमी देश इस हमले को रोकने में कामयाब रहे. धीरे धीरे वे पश्चिम और पूर्व की ओर से जर्मन साम्राज्य की ओर बढ़े.
तस्वीर: imago/United Archives
1945
08 मई, 1945 को नाजी जर्मनी ने बिना किसी शर्त घुटने टेक दिए. 30 अप्रैल को हिटलर ने खुद को गोली मार आत्महत्या कर ली ताकि कोई उसे गिरफ्तार न कर सके. यूरोप के अधिकतर शहर छह साल के युद्ध के बाद मलबे में तब्दील हो चुके थे. दूसरे विश्व युद्ध में करीब पांच करोड़ लोग मारे गए. जनरल फील्ड मार्शल विल्हेल्म काइटेल ने मई 1945 को बर्लिन में संधिपत्र पर हस्ताक्षर किए.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
11 तस्वीरें1 | 11
सन 1989 में पोलैंड सोवियत संघ से अलग हो गया. सोवियत संघ से अलग होने पर पोलैंड ने महाराजा के नाम पर अपनी राजधानी वॉरसॉ में दिग्विजय सिंहजी के नाम पर एक चौक का नाम रखा. हालांकि महाराजा ये देखने के लिए जिंदा नहीं थे. उनका निधन 1966 में ही हो गया था. 2012 में वॉरसॉ के एक पार्क का नाम भी दिग्विजय सिंहजी के नाम पर रखा गया. साथ ही पोलैंड ने महाराजा को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ दि ऑर्डर ऑफ मेरिट भी दिया.
जब ये पोलिश बच्चे भारत में थे तो उनके लिए बनाई गई लाइब्रेरी को अब बालाचड़ी के सैनिक स्कूल के रूप में विकसित कर दिया गया है. 2018 में पोलैंड की आजादी के 100 साल पूरे होने पर इन बच्चों में से जीवित बचे कुछ लोग बालाचड़ी गांव आए थे. यहां पर इनकी याद में एक स्तंभ बना हुआ है. नवानगर के राजा को जामसाहब कहा जाता था. जामसाहब दिग्विजय सिंहजी के पिता थे रणजीत सिंहजी जडेजा. रणजीत सिंहजी एक अच्छे क्रिकेट खिलाड़ी थे. इन्हें रणजी के नाम से भी जाना जाता था. ये पहले प्रॉफेशनल भारतीय क्रिकेटर भी थे. अंग्रेजों नें 1934 में इनके नाम पर रणजी ट्रॉफी नाम से टूर्नामेंट शुरू किया जो आज भी भारत में घरेलू क्रिकेट का सबसे बड़ा टूर्नामेंट है.