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आखिर क्यों व्यंग्य का पर्याय बन गया है बिहार?

मनीष कुमार
२३ दिसम्बर २०२२

संसद में राजद सांसद मनोज झा और बीजेपी के केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल के बीच जो हुआ, उसने पुराना दर्द फिर हरा कर दिया.

Neu-Delhi | Indische Arbeiter
तस्वीर: Money Sharma/AFP/Getty Images

संसद में विनियोग विधेयक पर राजद सांसद मनोज कुमार झा द्वारा की जा रही चर्चा के दौरान उनके यह कहने पर कि सरकार को गरीबों और औद्योगिक घरानों पर समान रूप से ध्यान देना चाहिए, केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने अपनी टिप्पणी में कहा कि इनका वश चले, तो पूरे देश को बिहार बना दें.

केंद्रीय मंत्री गोयल की इस टिप्पणी पर राजनीतिक विवाद तो हुआ ही, बिहार एक बार फिर अपने पिछड़ेपन को लेकर चर्चा में आ गया. हालांकि, बाद में गोयल ने अपना बयान वापस ले लिया.

पर प्रश्न यह है कि आखिर ऐसा क्यों होता है कि जब-जब गरीबी, अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य सुविधा व समेकित पिछड़ेपन की बात चलती है, तो बिहार का नाम सामने आ जाता है. आजादी के 75 साल बाद भी विकास के मापदंड पर बिहार का नाम अग्रणी राज्यों की सूची में आखिर क्यों नहीं शुमार हो सका है.

तस्वीर: Manish Kumar/DW

कई इंडेक्स पर काफी पीछे

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) द्वारा बीते 20 दिसंबर को साल 2022 के लिए जारी सामाजिक प्रगति सूचकांक (एसपीआई) के मुताबिक बिहार का नाम सबसे कम प्रगति वाले राज्यों में है.

बिहार 100 में से 44.47 अंकों के साथ असम व झारखंड के साथ सबसे निचले स्तर पर है. यह सूचकांक एक रिपोर्ट है, जिसमें तीन बुनियादी मानवीय आवश्यकताओं, बेहतर जीवन शैली के आधार और अवसरों पर राज्यों के प्रदर्शन का आकलन किया जाता है.

वहीं नीति आयोग की एसडीजी इंडिया इंडेक्स में भी 100 में से 52 अंकों के साथ बिहार सबसे नीचे है. हालांकि, बिहार की सरकार ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठाते हुए कड़ा प्रतिवाद किया था.

इस इंडेक्स से पता चलता है कि विकास के मोर्चे पर कौन सा राज्य कितना आगे बढ़ रहा है. इसी तरह नीति आयोग के भारत नवाचार सूचकांक (इनोवेशन इंडेक्स), 2021 की रिपोर्ट में भी बिहार 15वें स्थान पर है. इसमें राज्य स्तर पर नवाचार क्षमताओं और पारिस्थितिक तंत्र की पड़ताल की जाती है.

स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा विश्व बैंक की तकनीकी सहायता से तैयार की गई नीति आयोग के चौथे स्वास्थ्य सूचकांक (हेल्थ इंडेक्स) पर भी बिहार 18वें यानी नीचे से दूसरे स्थान पर दर्ज है. सबसे नीचे 19वें स्थान पर उत्तर प्रदेश का नाम है. जाहिर है कि अन्य राज्यों की तुलना में बिहार कई मापदंडों (इंडेक्स) पर पिछड़ा है.

तस्वीर: Manish Kumar/DW

करीब एक चौथाई आबादी के पास संपत्ति नहीं

एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार की सत्तारूढ़ पार्टी जनता दल यूनाइटेड के सांसद राजीव रंजन सिंह ने नीति आयोग की 2020-21 की रिपोर्ट में बिहार को सबसे पिछड़ा राज्य बताने पर लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान पूछा था कि इसके पिछड़ेपन की वजह क्या है.

केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने अपने लिखित जवाब में कहा कि 115 क्षेत्रों में से 100 में बिहार को देशभर में सबसे कम 52 अंक मिले हैं. बिहार में 33.74 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. अगर वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) की बात की जाए, तो यह बढ़कर 52.5 प्रतिशत हो जाता है.

पांच वर्ष से कम उम्र के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, जबकि 15 वर्ष से ऊपर के लोगों की साक्षरता दर 64.7 प्रतिशत है. केवल 12.3 प्रतिशत परिवार ही हेल्थ इंश्योरेंस के दायरे में हैं.

साथ ही, बिहार में सबसे कम 33.99 प्रतिशत लोग इंटरनेट का और महज 50.65 प्रतिशत लोग मोबाइल फोन का उपयोग करते हैं. इसी तरह नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 24.32 प्रतिशत लोगों के पास संपत्ति नहीं है.

एसडीजी इंडेक्स के अनुसार संपत्ति का मालिक उसे माना जाता है, जिसके पास टेलीफोन, फ्रिज, मोटरसाइकिल, कम्प्यूटर, साइकिल, रेडियो और टीवी में कोई दो चीजें उसके पास हो. राज्य में चार प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनके पास बैंक अकाउंट नहीं है. वहीं 45.62 प्रतिशत महिलाओं को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं.

तस्वीर: Manish Kumar/DW

आज भी बीमारू राज्यों में शामिल

जानकार बताते हैं कि प्रति व्यक्ति आय, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, तकनीक, सुरक्षा, रेल-सड़क यातायात और सांस्थानिक स्थिति किसी भी राज्य के विकास के आकलन के मुख्य मापदंड हैं.

बिहार के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री व पटना विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर डॉ. नवल किशोर चौधरी कहते हैं, ‘‘विकास के महत्वपूर्ण इंडेक्स प्रति व्यक्ति आय को देखें, तो यह राष्ट्रीय औसत की लगभग एक-तिहाई है. शिक्षा दर में वृद्धि हुई है, किंतु अब भी ओवरऑल एक-तिहाई लोग अशिक्षित हैं."

प्रोफेसर चौधरी कहते हैं, "सड़क-रेल कनेक्टिविटी में सुधार के बावजूद हम कई अग्रणी राज्यों से पीछे हैं. शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में भी हम सुधार के बावजूद पीछे हैं. गरीबी की बात करें, तो हम सबसे नीचे हैं ही. बीमारू राज्यों के दायरे में हम आज भी आते हैं.''

वैसे यह अच्छी बात है कि नेशनल स्टैटिकल ऑफिस (एनएसओ) द्वारा साल 2021-22 के लिए जारी आंकड़ों के अनुसार बिहार की विकास दर 10.98 फीसदी रहने का अनुमान है. यदि विकास दर बढ़ेगी, तो आम लोगों की आय भी बढ़ेगी. जनसंख्या वृद्धि दर में भी कमी आएगी, तो लोगों की आय में इजाफा होगा.

तस्वीर: Manish Kumar/DW

गरीबी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

अगर गरीबी के कारणों की बात करें, तो इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी रही है. बिहार परमानेंट सेटलमेंट एरिया (जमींदारी सिस्टम) का हिस्सा था. बंगाल प्रेसीडेंसी का पार्ट था. यह सच है कि बिहार जब से अस्तित्व में है, तभी से पीछे था. आजादी के बाद विकास की दौड़ में भी पीछे ही रहा. 90 के दशक में उदारीकरण का फायदा भी बिहार को नहीं मिल सका.

बिहार 1950 में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करने वाला पहला राज्य बना, लेकिन इसके बाद जो सुधार होने थे, वे नहीं हुए. प्रो. चौधरी कहते हैं, ‘‘2011 की जनसंख्या के अनुसार लगभग 89 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है. 76 प्रतिशत आबादी सीधे खेती पर निर्भर है. एग्रीकल्चरल प्रोडक्टिविटी (कृषि उत्पादकता) किसी भी सोसाइटी में चाहे जिस भी वजह से कम रहेगी, वहां गरीबी तो रहेगी ही.''

बिहार में प्रति व्यक्ति जमीन की उपलब्धता काफी कम है. अब भी 20 प्रतिशत लैंड होल्डिंग शेयर क्रापिंग में है. गारंटी नहीं है. लीज सिस्टम प्रभावी नहीं है. कुसहा त्रासदी के बाद जो क्षतिपूर्ति की राशि मिली, वह जमीन मालिक को मिली, न कि खेती करने वाले को, जिसने पूंजी लगाई, इन्वेस्ट किया. बिहार में जनसंख्या का घनत्व भी एक अलग समस्या है. हरित क्रांति का फायदा भी पंजाब-हरियाणा को ही मिला. हंगर इंडेक्स में भी हम पीछे है.

तस्वीर: Money Sharma/AFP/Getty Images

अर्थव्यवस्था का औद्योगिकीकरण जरूरी

सुधार के मुद्दे पर प्रो. चौधरी कहते हैं, ‘‘एग्रीकल्चर का इंस्टीट्यूशनल रिफॉर्म होना बहुत जरूरी है. यह अब भी बिहार में लोगों की आय का मुख्य स्रोत है. अगर आप पश्चिमी देशों को देखें, तो पाएंगे कि जो कृषि आधारित अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) हैं, वे उद्योग आधारित इकोनॉमी से हमेशा पीछे रहती हैं. इंडस्ट्रियल प्रोडक्टिविटी की जो ग्रोथ और जो विस्तार हुआ, वह एग्रीकल्चरल प्रोडक्टिविटी का नहीं हो सका.''

उद्योग-धंधों की बात करें, तो मैन्युफैक्चरिंग लगभग मृतप्राय है. बाहर से उद्यमी आए नहीं, हम लोकल उद्यमियों पर आधारित हैं. हां, इधर इथेनॉल को लेकर थोड़ी उम्मीद बंधी है, लेकिन जब तक अर्थव्यवस्था का औद्योगिकीकरण नहीं होगा, तब तक यही स्थिति बरकरार रहेगी. शुगर इंडस्ट्री खत्म हो गई. हालांकि, अभी कुछ फिर से शुरू हुई हैं.

लैंड रिफॉर्म्स की बात हुई, लेकिन वह हुआ नहीं, तो एग्रीकल्चर का इंस्टीट्यूशनल रिफॉर्म्स कैसे होगा. प्रो. चौधरी कहते हैं, ‘‘कोसी और गंडक के बाद कोई बड़ा प्रोजेक्ट नहीं आया. याद कीजिए सोन कैनाल सिस्टम ने कैसे भोजपुर जिले का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया. एग्रो इंडस्ट्री को भी हम विकसित नहीं कर पा रहे. पिछले बजट में महज 0.6 प्रतिशत ही उद्योगों के लिए आवंटन किया गया. न आप बजट देंगे, न आप उनके ट्रांसफॉर्मेशन के लिए कुछ कीजिएगा और न सम्मान दीजिएगा, तो कैसे होगा सुधार.''

तस्वीर: Diptendu Dutta/AFP/Getty Images

लागू हो औद्योगिक प्रोत्साहन नीति

यह सच है कि बिहार में कई क्षेत्रों में काफी काम हुआ है और स्थिति सुधरी भी है. किंतु यह कटु सत्य है कि दावे जो भी किए जा रहे हों, उसके अनुरूप विकास के मापदंडों पर राज्य उतना प्रदर्शन नहीं कर रहा.

बीते गुरुवार राज्य के उद्योग मंत्री समीर कुमार महासेठ के साथ विभिन्न उद्योग संघों की बैठक हुई, जिसमें उन्हें एक सुझाव पत्र सौंपा गया. इसमें बिहार चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्रीज ने औद्योगिक प्रोत्साहन नीति के तहत निर्धारित समय में उद्यमियों को प्रोत्साहन लाभ व इन्सेंटिव देने की मांग की.

वहीं बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन ने कहा है कि बिहार में बैंकों का साख-जमा अनुपात 50 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत 76 प्रतिशत है. इतने बड़े अंतर को खत्म करने को ध्यान में रखकर बजट में प्रावधान किए जाने चाहिए.

उद्योग मंत्री को सौंपे गए सुझाव पत्र में पर्यटन को उद्योग का दर्जा देने, सरकार की खरीद नीति को व्यावहारिक बनाने, विद्युत दर घटाने, मेडिकल टूरिज्म का विकास करने, इथेनॉल का कोटा बढ़ाने और उद्योग विभाग का बजट 10,000 करोड़ रुपये करने की बात कही गई है.

समाजशास्त्र की अवकाश प्राप्त व्याख्याता प्रो. नीलम शर्मा कहती हैं, ‘‘रोजगार की कमी होगी, तो लोग दूसरे राज्यों में जाएंगे ही. इनमें अधिकतर संख्या कामगारों की होती है. वे बाहर जाकर भी मजदूरी ही करेंगे या फिर जीवन-यापन के लिए कोई न कोई उपाय ढूंढेंगे. कोई बड़ा पद या ओहदा तो उन्हें मिलेगा नहीं. बाहर गए ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है, तो जाहिर है ब्रांड इमेज तो वे ही बनाएंगे अपने वजूद के अनुसार.''

शायद इसी वजह से चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर कहते हैं, ‘‘राजनेताओं ने यहां की व्यवस्था को मजदूर बनाने की फैक्ट्री बनाकर रख दिया है.’’

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