क्या अमेरिकी दबाव में जर्मनी ने लगाया हिजबुल्लाह पर प्रतिबंध
हरिंदर मिश्रा
१ मई २०२०
अमेरिका लगातार जर्मनी से इस बात की मांग कर रहा था कि वह हिजबुल्लाह को पूरी तरह आतंकी संगठन घोषित करे लेकिन जर्मनी इसका अब तक अनमने ढंग से विरोध करता रहा. तो फिर अब अचानक क्या हुआ?
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जर्मनी ने गुरूवार को लेबनान के आतंकी संगठन हिजबुल्लाह पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है. यूरोपीय संघ के ज्यादातर देशों की तरह जर्मनी ने भी अभी तक केवल इस संगठन की सैन्य गतिविधियों पर ही रोक लगा रखी थी. तमाम दबावों के बावजूद हिजबुल्लाह राजनीतिक रूप से जर्मनी में अभी भी सक्रिय था और उसे धन जमा करने का मुख्य केंद्र बनाए हुए था.
यह नया प्रतिबंध बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि वह हिजबुल्लाह की सामाजिक, राजनीतिक और सैन्य गतिविधियों में फर्क नहीं करता और संघठन को पूरी तरह आतंकी मानता है. जर्मनी इस प्रकार अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और लातिन अमेरिका के देशों के समूह में शामिल हो गया है जो पहले ही यह कदम उठा चुके हैं.
इस्राएल ने इस फैसले का स्वागत करते हुए उम्मीद जताई है कि यूरोपीय संघ के और देश भी शीघ्र ही जर्मनी के दिखाए रास्ते पर चलते हुए हिजबुल्लाह पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाएंगे. इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू ने जर्मनी द्वारा हिजबुल्लाह को गैर-कानूनी घोषित किए जाने का स्वागत करते हुए कहा कि "सभी शांतिप्रिय देशों को आतंकवादी संगठनों को अस्वीकार करते हुए उनको कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहायता प्रदान नहीं करनी चाहिए."
इस्राएल के विदेश मंत्री इजरायल काट्ज ने इसे एक "महत्वपूर्ण निर्णय" बताते हुए अन्य यूरोपीय देशों से अपील की है कि वे इस पर गौर करें और इस आतंकी संगठन के खिलाफ सख्त कदम उठाएं. जर्मन गृह मंत्री होर्स्ट जेहोफर ने गुरुवार को कहा कि हिजबुल्लाह की गतिविधियां "आपराधिक कानून का उल्लंघन करती हैं और यह संगठन अंतरराष्ट्रीय समझौतों की अवहेलना करता है".
शेख हसन नसरल्लाह की अध्यक्षता वाला यह संगठन इस्राएल के अस्तित्व को अस्वीकार करता है और यहूदी राष्ट्र के खिलाफ सशस्त्र आतंकवादी लड़ाई का समर्थन करता है. जर्मन गृह मंत्री ने यह भी आशंका जताई कि हिजबुल्लाह इस्राएल और उसके हितों के खिलाफ उसकी सीमा के बाहर भी आतंकवादी हमलों की साजिश रच रहा है.
जानिए कौन है इस्राएल का जानी दुश्मन हिजबुल्ला
लेबनान में एक सियासी पार्टी और एक चरमपंथी संगठन के तौर पर हिजबुल्ला की ताकत लगातार बढ़ रही है. इस शिया संगठन के बढ़ते प्रभाव के कारण न सिर्फ लेबनान में बल्कि समूचे मध्य पूर्व में तनाव पैदा हो रहा है.
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हिजबुल्ला का उदय
हिजबुल्ला का मतलब है अल्लाह का पक्ष. 1982 में दक्षिणी लेबनान पर इस्राएल के हमले के बाद मुस्लिम मौलवियों ने कई शिया हथियारबंद गुटों को मिलाकर हिजबुल्ला की बुनियाद रखी. अब इस शिया गुट के पास न सिर्फ अपनी राजनीतिक पार्टी है बल्कि उसकी सैन्य शाखा भी है.
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इस्राएल का विरोध
लेबनान के गृहयुद्ध में हिजबुल्ला ने बड़ी भूमिका निभाई. उसने दक्षिण लेबनान से इस्राएली फौज को बाहर करने के लिए गुरिल्ला युद्ध का सहारा लिया. इस्राएल 2000 में वहां से हटा. इस्राएल और हिजबुल्ला ने 2006 में भी लड़ाई लड़ी. लेबनान की रक्षा के लिए इस्राएल के खिलाफ खड़े होने की वजह उसे समाज में भरपूर समर्थन मिलता है.
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ईरान की मदद
अपने गठन के बाद से ही हिजबुल्ला को ईरान और सीरिया की तरफ से सैन्य, वित्तीय, और राजनीतिक समर्थन मिलता रहा है. आज हिजबुल्लाह की सैन्य शाखा लेबनान की सेना से कहीं ज्यादा ताकतवर है और उसे क्षेत्र का एक बड़ा अर्धसैनिक बल माना जाता है.
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राजनीतिक ढांचा
1975 से 1990 तक चले लेबनान के गृहयुद्ध के बाद हिजबुल्लाह ने राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया. वह लेबनान की शिया आबादी के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है. ईसाई जैसे अन्य धार्मिक समुदायों के साथ उसका गठबंधन है. हसन नसरल्लाह 1992 से हिजबुल्ला के प्रमुख हैं.
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सैन्य शाखा
हिजबुल्ला ने गृह युद्ध खत्म होने के बाद भी अपनी सैन्य शाखा को खत्म नहीं किया. प्रधानमंत्री साद हरीरी के फ्यूचर मूवमेंट जैसे कई राजनीतिक दल चाहते हैं कि हिजबुल्लाह हथियार छोड़ दे. लेकिन हिजबुल्ला की दलील है कि इस्राएल और अन्य चरमपंथी गुटों से रक्षा के लिए उसकी सैन्य शाखा बहुत जरूरी है.
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आतंकवादी संगठन?
अमेरिका, इस्राएल, कनाडा और अरब लीग समेत दुनिया के कई देश और संगठन हिजबुल्लाह को एक आतकंवादी संगठन मानते हैं. हालांकि ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ हिजबुल्ला की राजनीतिक गतिविधियों और सैन्य शाखा में अंतर करते हैं.
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सीरिया में हिजबुल्ला
सीरिया के गृहयुद्ध में हिजबुल्ला राष्ट्रपति बशर अल असद का समर्थन कर रहा है. हिजबुल्ला ने सीरिया से हथियारों की सप्लाई के रूट को सुरक्षित बनाया और असद के लिए चुनौती बन रहे सुन्नी चरमपंथी गुटों के खिलाफ लेबनान के आसपास एक बफर जोन बनाया.
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सांप्रदायिकता
हिजबुल्ला सऊदी अरब और ईरान के बीच चलने वाले क्षेत्रीय संघर्ष के केंद्र में रहा है. लेकिन हिजबुल्ला की बढ़ती हुई राजनीतिक और सैन्य ताकत और सीरिया में हस्तक्षेप के कारण लेबनान और पूरे क्षेत्र में शिया-सुन्नी तनाव बढ़ता रहा है.
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इस्राएल के साथ नया विवाद
सीरिया युद्ध के जरिए ईरान और हिजबुल्ला दोनों ने अपने सैन्य और राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाया है. इस्राएल इस बात को अपने लिए खतरा समझता है और इसीलिए उसने सीरिया में ईरान और हिजबुल्ला के ठिकानों पर हमले किए हैं. हिजबुल्लाह और इस्राएल के बीच युद्ध की अटकलें भी लग रही हैं.
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ये बातें नई नहीं है और इस्राएल तथा उसका मित्र देश अमेरिका लगातार जर्मनी से इस बात की मांग कर रहे थे कि वह हिजबुल्लाह को पूर्णतः आतंकी संगठन घोषित करे. लेकिन जर्मनी इसका अब तक अनमने ढंग से विरोध करता रहा. इस्राएली विशेषज्ञों का मानना है कि जर्मनी के इस अहम फैसले के पीछे कुछ हद तक बढ़ते दबाव का असर है लेकिन वहीं उसकी सोच में भी थोड़ा परिवर्तन हुआ है.
इस्राएल के अखबार जेरूसलम पोस्ट के एक समीक्षक बेंजामिन वेंथल कहते हैं कि जर्मनी का हिजबुल्लाह को लेकर नजरिया बदला है. पहले जहां जर्मनी का यह मानना था कि हिजबुल्लाह लेबनान में एक प्रासंगिक संगठन है, जिसके सदस्य वहां की संसद में शामिल हैं, तो अब उसे इस बात का एहसास हुआ है कि इस आतंकी संगठन ने पूरे देश के ढांचे को अस्त-व्यस्त कर दिया है और उसको अपनी गिरफ्त में ले चुका है.
सवाल उठाए जा रहे हैं की जर्मनी इस प्रस्ताव के विरोध में अब तक यह कहता रहा कि मध्य-पूर्व शांति वार्ता में कोई पेशरफ्त होती है तो वह आगे बढ़ेगा. तो ऐसे में शांति वार्ता में किसी प्रकार की प्रगति न होते हुए भी अब उसने ऐसा फैसला कैसे कर लिया. इस्राएली अखबारों के अनुसार यह अमेरिका द्वारा डाले जाने वाले अप्रत्याशित दबाव का नतीजा है, जो जर्मनी को पूर्ण तौर पर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में साथ होने को कह रहा है. वैसे जर्मनी ने हमेशा स्वतंत्र फैसले लिए हैं और अमरीकी दबाव के बावजूद उसने ईरान, जो कि हिजबुल्लाह का मुख्य समर्थक है, के खिलाफ कोई बड़ा कदम नहीं उठाया है.
कुछ इस्राएली समीक्षकों का यह भी मानना है कि जिस तरह हिजबुल्लाह का प्रभाव मध्य पूर्व के साथ साथ जर्मनी में बढ़ रहा था, उससे भी वहां की सरकार भयभीत थी. हिजबुल्लाह के नेतृत्व में वहां इस्राएल विरोधी प्रदर्शन तो होते ही रहे, साथ ही जिस तरह से वहां धन जुटाने के प्रयास चल रहे थे, उससे न सिर्फ हिजबुल्लाह का प्रभाव बढ़ रहा था, बल्कि एक "समानांतर खतरनाक संगठन देश में खड़ा होता दिख रहा था."
हिजबुल्लाह शिया मुसलमानों द्वारा समर्थित लेबनान का एक संगठन है जिसका प्रभाव मूलतः उसके दक्षिणी इलाकों में हुआ करता था लेकिन अब वह फैलकर लगभग पूरे देश में दिखता है. एक सीमित इलाके में अपना प्रभुत्व जमाने के बाद ईरान द्वारा समर्थित यह संगठन अपना प्रभाव अब आस पास के तमाम देशों में भी जमा चुका है. पड़ोसी देश सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल असद की सत्ता बचाने में हिजबुल्लाह की अहम भूमिका रही है. माना जाता है की हिजबुल्लाह के लड़ाकों के समर्थन के बगैर असद अपनी सत्ता नहीं बचा पाते.
इसलिए ईरान की सऊदी अरब से नहीं पटती
मध्य पूर्व के दो ताकतवर देशों सऊदी अरब और ईरान के बीच हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहता है. दोनों धर्म से लेकर तेल और इलाके में दबदबा कायम करने तक, हर बात पर झगड़ते हैं.
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शिया-सुन्नी टकराव
दोनों ही देश खुद को इस्लाम की दो अलग अलग शाखों का संरक्षक मानते हैं. सऊदी अरब जहां एक सुन्नी देश है, वहीं ईरान शिया देश. इसीलिए ये दोनों दुनिया भर में शिया और सुन्नियों के बीच होने वाले विवादों की धुरी माने जाते हैं.
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तेल के दाम
1973 में अरब-इस्राएल युद्ध के दौरान तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक ने तेल के दाम बहुत बढ़ा दिये थे. अरब तेल उत्पादक देशों ने इस्राएल समर्थक समझे जाने वाले देशों पर रोक लगा दी, जिनमें अमेरिका भी शामिल था.
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तनाव बढ़ा
ईरान चाहता था कि तेल के दाम और बढ़ाये जाएं ताकि उसके यहां महत्वाकांक्षी औद्योगिक विकास परियोजनाओं के लिए धन मिल सके. लेकिन सऊदी अरब नहीं चाहता था कि तेल के दामों में बेतहाशा वृद्धि हो. इसके पीछे उसका मकसद अपने सहयोगी देश अमेरिका को बचाना था.
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क्रांति का निर्यात
ईरान में 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के दौरान पश्चिम समर्थक शाह को सत्ता से बेदखल किया गया और देश में इस्लामी गणतंत्र की स्थापना हुई. इसके बाद क्षेत्र के सुन्नी देशों ने ईरान पर आरोप लगाया कि वह उनके यहां क्रांति को "भेजने" की कोशिश कर रहा है.
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इराक-ईरान युद्ध
सितंबर 1980 में इराक ने ईरान पर हमला कर दिया और यह युद्ध आठ साल तक चला. सऊदी अरब ने वित्तीय रूप से इराकी सरकार की मदद की और अन्य सुन्नी देशों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रोत्साहित किया. इससे ईरान और सऊदी अरब की कड़वाहट और बढ़ी.
तस्वीर: AP
हज में टकराव
सऊदी सुरक्षा बलों ने 1987 में मक्का में ईरानी श्रद्धालुओं के अनाधिकृतक अमेरिका विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ कार्रवाई की. इस दौरान 400 लोग मारे गये हैं. इससे गुस्साए ईरानियों ने तेहरान में सऊदी दूतावास में लूटपाट की.
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हज का सियासी इस्तेमाल
अप्रैल 1988 में सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये. 1991 तक ईरान से कोई श्रद्धालु हज यात्रा पर नहीं गया. ईरान अकसर सऊदी अरब पर हज यात्रा को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाता रहा है.
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बेहतर हुए संबंध
ईरान में मई 1997 के राष्ट्रपति चुनावों में सुधारवादी मोहम्मद खतामी की जीत के बाद दोनों देशों के रिश्तों में सुधार देखने को मिला. मई 1999 में राष्ट्रपति ईरानी राष्ट्रपति ने सऊदी अरब का ऐतिहासिक दौरा किया था.
तस्वीर: Isna
इराक की जंग
2003 में इराक पर अमेरिकी हमले ने सऊदी-ईरान तनाव को और बढ़ दिया. अमेरिकी हमले के चलते इराक में बाथ पार्टी का शासन खत्म हुआ और बहुसंख्यक शिया समुदाय को सत्ता में आने का मौका मिला. इससे इराक पर ईरान का प्रभाव बढ़ने लगा.
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अरब स्प्रिंग
2011 में जब अरब दुनिया में बदलाव की लहर चली तो सऊदी अरब ने पड़ोसी बहरीन में अपने सैनिक भेजे. वहां सुन्नी शासक के खिलाफ बहुसंख्यक शिया लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरे. सऊदी अरब ने ईरान पर बहरीन में गड़बड़ी फैलाने का आरोप लगाया.
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सीरिया संकट
ईरान-सऊदी अरब के झगड़े में 2012 के सीरिया संकट ने भी आग में घी का काम किया. सीरिया की जंग में जहां ईरान सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद का साथ दे रहा है, वहीं उनके खिलाफ लड़ रहे विद्रोहियों को सऊदी अरब और उसके सहयोगी अमेरिका का समर्थन मिला.
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यमन का मोर्चा
यमन संकट में भी सऊदी अरब और ईरान एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए. मार्च 2015 में सऊदी अरब ने सुन्नी अरब देशों का एक गठबंधन बनाया, जिसने यमनी राष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी के समर्थन में यमन में हस्तक्षेप किया. वहीं ईरान हूती बागियों के साथ खड़ा दिखा.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Huwais
हज में भगदड़
सितंबर 2015 में हज यात्रा के दौरान भगदड़ हुई जिसमें 2,300 विदेशी श्रद्धालु मारे गये. मरने वालों में ज्यादातर ईरानी लोग शामिल थे. इसके बाद ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह खमेनेई ने कहा कि सऊदी शाही परिवार इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों की व्यवस्था संभालने लायक नहीं है.
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फिर टूटे रिश्ते
जनवरी 2016 में सऊदी अरब में एक प्रमुख शिया मौलवी निम्र अल निम्र को मौत की सजा दी गयी. उन पर सरकार विरोधी प्रदर्शन भड़काने के आरोप लगे. ईरान ने इस पर गहरी नाराजगी जतायी. ईरान में सऊदी राजनयिक मिशन पर हमले किये गये और सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये.
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हिज्बोल्लाह एंगल
मार्च 2016 में लेबनान के शिया मिलिशिया गुट और ईरान के सहयोगी हिज्बोल्लाह को अरब देशों ने आतंकवादी करार दिया. इससे पहले हिज्बोल्लाह के प्रमुख ने सऊदी अरब पर शिया और सुन्नियों के बीच "नफरत भड़काने" का आरोप लगाया था.
तस्वीर: AP
लेबनान पर 'पकड़'
नवंबर 2017 में लेबनान के प्रधानमंत्री साद हरीरी ने इस्तीफा दे दिया और कहा कि ईरान हिज्बोल्लाह के जरिए लेबनान पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. पद छोड़ने के बाद हरीरी ने सऊदी अरब जाकर शाह सलमान से मुलाकात की.
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कतर संकट
इससे पहले जून 2017 में सऊदी अरब और उसके कई सहयोगी देशों ने कतर के साथ अपने रिश्ते तोड़ लिये. उन्होंने कतर पर ईरान से नजदीकी संबंध कायम करने और चरमपंथियों का समर्थन करने का आरोप लगाया.
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ट्रंप के साथ सऊदी अरब
अक्टूबर 2017 में सऊदी अरब ने कहा कि वह ईरान के मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की मजबूत रणनीति का समर्थन करता है. ट्रंप ने 2015 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हुए समझौते को मंजूर करने से इनकार कर दिया.
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इस्राएल के विरोधी तमाम राष्ट्रों में भी हिजबुल्लाह के लिए काफी समर्थन दिखता है क्योंकि उसने अपने आप को इस्राएल के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में पेश किया है. 2006 में द्वितीय इस्राएल-लेबनान युद्ध के नाम से जाने जाने वाली लड़ाई मुख्यतः हिजबुल्लाह द्वारा ही लड़ी गई थी जिसमें इस्राएल को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा था.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय के हस्तक्षेप की वजह से क्षेत्र में जंगबंदी हुई लेकिन इस युद्ध के बाद से इस्राएल विरोधी खेमे में हिजबुल्लाह की साख काफी बढ़ गई. हालांकि ज्यादातर फलस्तीनी सुन्नी मुसलमान हैं लेकिन उनमें भी हिजबुल्लाह की बहुत मजबूत पकड़ है. कुल मिलाकर ईरान द्वारा हर तरह का समर्थन पाने वाला यह आतंकी संगठन मध्य पूर्व में अस्थिरता पैदा करने की क्षमता रखता है. जिस तरह से उसने वर्षों से इस्राएल का विरोध किया है और उसके खिलाफ दुनिया की कई और जगहों पर भी उसने हमले किए हैं, उससे पश्चिमी देश भी उसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं.
इस्राएल-लेबनान सीमा पर 2006 से लगातार एक असहज शांति देखने को मिली है. ऐसे में एक महत्वपूर्ण भारतीय किरदार का जिक्र करना स्वाभाविक है. राष्ट्र संघ द्वारा तैनात यूनिफिल फोर्स, जो कि इस सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए तैनात है, उसमें भारतीय फौज की एक टुकड़ी 1978 से ही डटी हुई है. असाधारण माहौल में भी इस टुकड़ी ने महत्वपूर्ण कार्य किया है और दोनों ही पक्षों का विश्वास बहुत हद तक उसे प्राप्त है, जिसकी वजह से शांति बनाए रखने में उसकी भूमिका की बेहद सराहना होती रही है.