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शिक्षाभारत

बिहार: क्या सरकारी नौकरी ही है एक विकल्प

मनीष कुमार
३१ दिसम्बर २०२४

कई युवाओं को लगता है कि सरकारी नौकरी में सरकारी सुविधाओं के साथ जीवन आराम से कट जाएगा. ऐसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लाखों छात्र घर से दूर शहरों की छोटी कोठरियों में अपनी युवावस्था के अनगिनत साल लगा देते हैं.

पटना में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र मो. मुबारक हुसैन
पटना में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र मो. मुबारक हुसैन सरकारी नौकरी का अपना सपना पूरा करने में लगे हैंतस्वीर: Manish Kumar/DW

बिहार की राजधानी पटना के रमना रोड से जुड़ी एक तंग गली. इसी गली के एक स्टूडेंट लॉज के एक कमरे में पढ़ रहे मो. मुबारक हुसैन. चेहरे पर चिंता की लकीरें. हाल पूछते ही कहते हैं, "क्या बताऊं, सोचा था कि इस बार बीपीएससी (बिहार लोक सेवा आयोग) का प्रीलिम्स (पीटी) क्लियर हो जाएगा. लेकिन, लगता है नॉर्मलाइजेशन हुआ तो इस बार भी रह ही जाएंगे. तब तो घर लौटने के सिवा कोई उपाय नहीं रह जाएगा."

कटिहार निवासी हुसैन इंटर की परीक्षा पास करने के बाद प्रशासनिक अधिकारी बनने की महत्वाकांक्षा के साथ आज से करीब 14 वर्ष पहले पटना आए थे. प्रतिष्ठित पटना कॉलेज से ग्रेजुएशन किया, फिर पटना विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएट हुए. फिर बीपीएससी द्वारा ली जाने वाली परीक्षा की तैयारी में जुट गए, ताकि एसडीओ-एसडीपीओ बन सकें. अपनी ओर से सौ फीसद देने के बावजूद आज तक उनका सपना पूरा नहीं हो सका है. इस बीच एसएससी (स्टॉफ सेलेक्शन कमीशन) द्वारा ली जाने वाली ग्रेजुएशन लेवल (सीजीएल) की भी परीक्षाएं दीं. किंतु, कभी पेपर लीक तो कभी विलंब से परीक्षा लिए जाने या फिर रद्द हो जाने की वजह से उनका सफर आज भी जारी है. इस बीच लंबा अरसा बीत जाने से उन पर सामाजिक-आर्थिक दबाव बढ़ गया है.

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डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, "पहले तीन-साढ़े तीन हजार रुपये में काम चल जाता था, लेकिन अब तो सात-साढ़े सात हजार में भी काम नहीं चलता. इसके बावजूद किन हालातों में रह रहा हूं, यह आप देख ही रहे हैं. पिता किसान हैं, और भी भाई-बहनें हैं. आखिर, कब तक वे पैसा भेजते रहेंगे." हुसैन का आठ गुणा दस फीट का कमरा है, इसी में दो लोग रहते हैं. कमरे में पुस्तकों का अंबार और अन्य सामान भी. बाहर खाना बनाना पड़ता है, सुबह बाथरूम-टॉयलेट में लाइन लगानी पड़ती है. परीक्षा के कारण खाना बनाना फिलहाल बंद है. फिर भी वे पूरे जोर-शोर से लक्ष्य प्राप्ति का हर संभव प्रयास कर रहे.

सता रही करियर की चिंता

प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी का इतना लंबा समय बीत गया और अब अगर सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी तो क्या करेंगे, यह पूछने पर हुसैन बेबाक कहते हैं, "आयोग अब अयोग्य हो गया है. मैं 67वीं पीटी से अटेम्प्ट ले रहा हूं, क्या ये परीक्षाएं विवादित नहीं रहीं? इस बार अगर बीपीएससी का री-एग्जाम नहीं हुआ तो पढ़ाई अब छोड़नी ही पड़ेगी. कटिहार लौट कर कोचिंग संस्थान खोलूंगा, और क्या विकल्प है मेरे पास. हालांकि, यहां से लौट कर वहां जाना इतना आसान नहीं है."

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वहीं, छात्र नेता नीरज यादव कहते हैं, "मैं बीपीएससी की 67वीं पीटी देने जा रहा था. मेरा सेंटर कैमूर में पड़ा था. जिस ट्रेन में मैं था, उसी में निचले बर्थ पर एक और लड़का था. अचानक वह ऐसे रोने लगा, जैसे उसके परिवार में कोई बड़ी घटना हो गई हो. पूछने पर उसने कहा, पेपर लीक हो गया है, अब क्या होगा. खैर... मैंने उसी दिन तय कर लिया कि अब यह परीक्षा फिर नहीं दूंगा."

हाल के सालों मे कई बार नौकरी की परीक्षाओं में तो सेटिंग की खबरें आम हो चुकी हैं. नीट-यूजी का पेपर लीक हुआ, एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे सॉल्वर पकड़े गए. छात्रों की मांग है कि जहां भी सरकारी वैकेंसी है, उसे ईमानदारी से भरा जाए, फेयर एक्जाम लिए जाएं, परीक्षा का कैलेंडर जारी किया जाए और पूरी प्रक्रिया पारदर्शी रहे. इसके अलावा वे चाहते है कि जहां भी नॉर्मलाइजेशन के कारण प्राप्त परसेंटाइल का इस्तेमाल हो, उसके बारे में भी अभ्यर्थी को पूरी तरह बताया जाए.

सरकारी नौकरी में सिक्योरिटी

सरकारी ही क्यों, प्राइवेट नौकरी क्यों नहीं, यह पूछने पर वे और उनके कुछ मित्र एक साथ बोल उठते हैं, "सरकारी नौकरी में सामाजिक प्रतिष्ठा है, स्टेटस सिंबल है. माता-पिता भी गौरवान्वित महसूस करते हैं. सिक्योरिटी है, जब तक कि आप कुछ गलत न करें. भरोसा है कि तमाम तरह की सरकारी सुविधाओं के साथ जीवन आराम से कट जाएगा. बताइए, प्राइवेट नौकरी का ऐसा भरोसा है क्या. पता नहीं, कब क्या कह कर निकाल दिए जाएं."

जिनसे भी बात कीजिए, ज्यादातर युवाओं को लगता है कि प्राइवेट जॉब में पूरा जीवन डरे-सहमे और पसोपेश में गुजर जाता है. आपको हमेशा अपनी उपयोगिता साबित करनी पड़ती है, स्वयं को अपडेट करना होता है. कोई कहता है कि कोविड काल में कैसे बड़ी-बड़ी कंपनियों तक ने लोगों को नहीं बख्शा और लोग अर्श से फर्श पर आ गए.

उनका मानना है कि जीवन-यापन का और कोई साधन नहीं होने पर उन्हें भी प्राइवेट नौकरी करनी पड़ सकती है लेकिन वह भी उनकी शर्तों पर तो मिलेगी नहीं. कुछ छात्र कहते हैं कि इस बार भी 'बिहार बिजनेस कनेक्ट' में एक लाख 80 हजार करोड़ रुपये के निवेश पर सहमति होने की बात कही जा रही है, कई एमओयू हुए, लेकिन एक साल बाद देखिएगा कि इससे सचमुच कितने रोजगार का सृजन हुआ.

पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त हों परीक्षाएं

बिहार के लोगों की कर्मठता और श्रम शक्ति के भरोसे ही देश के कई राज्य दशकों से विकास की राह पर अग्रसर हैं. इतना ही नहीं, इस प्रदेश के लोग दूसरे राज्यों में पुलिस, प्रशासन व स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर सेवा दे रहे हैं. किंतु, इसके साथ ही यह भी कटु सत्य है कि यहां बढ़ती आबादी की तुलना में रोजगार के अवसरों का सृजन नहीं हो सका है. इसलिए सरकारी नौकरी पर निर्भरता आज भी बरकरार है.

पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, ‘‘इसमें दो राय नहीं कि सरकार सबको नौकरी नहीं दे सकती. किंतु, जो परीक्षा ले रही है उसे तो पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त तरीके से संपन्न तो करवा ही सकती है.''

बीते सात साल में बिहार में 67वीं पीटी और नीट-यूजी समेत दस परीक्षाओं में पेपर लीक के मामले सामने आए, जिनकी जांच चल रही है. जाहिर है, पेपर लीक को लेकर अंदेशा भी बढ़ेगा और सवाल भी उठेंगे.

उद्योग-धंधे बिना पलायन ही उपाय

हुसैन डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "आप ही बताएं यहां और क्या विकल्प मौजूद है. सरकारें आती हैं, नए-नए उद्योग-धंधे के शुरू होने की बातें होती हैं. कुछ योजनाएं तो फाइलों में ही रह जाती हैं और अगर कुछ शुरू भी हुईं तो बेरोजगारों की फौज के सामने वे ऊंट के मुंह में जीरा समान साबित होती हैं. काम की तलाश में पलायन तो इसी वजह से हो रहा ना. और फिर मेरी योग्यता के अनुसार काम अपने यहां मिल जाएगा, इसका क्या भरोसा."

बिहार विधानसभा में 12 फरवरी, 2024 को पेश आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार बिहार में बेरोजगारी की दर 4.3 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत 3.4 फीसद से 0.9 प्रतिशत अधिक है. वहीं, सरकारी नौकरी पर निर्भरता पर राजनीतिक समीक्षक अरुण कुमार चौधरी कहते हैं, ‘‘इसकी एक वजह यहां के लोगों में उद्यम की मानसिकता का अभाव भी है. गुजराती या मारवाड़ी समुदाय के लोगों में रिस्क लेने की क्षमता हम लोगों से शायद अधिक है. हालांकि, यह भी सच है कि यह क्षमता आपकी आर्थिक स्थिति के समानुपातिक होती है. वैसे, धीरे-धीरे ही सही लोग सोचने लगे हैं, तभी तो गांव स्तर पर व्यापार विकसित हो रहा है.''

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