भारत: कैसे थमेंगी दहेज के नाम पर होने वाली मौतें?
२५ अगस्त २०२५
भारत के लिए न तो दहेज की प्रथा नई है और न ही इसके नाम पर होने वाली मौतें या हत्याएं. साक्षरता बनने और तमाम कानूनों के बावजूद अब तक इस सामाजिक कलंक से निजात नहीं मिल सकी है. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2017 से 2022 के बीच दहेज की वजह से होने वाले उत्पीड़न के कारण हर साल औसतन सात हजार महिलाओं ने अपनी जान दे दी या फिर उनकी हत्या कर दी गई. वर्ष 2022 में यह आंकड़ा 6,450 था. यानी रोजाना 18 महिलाओं की मौत हुई थी.
यह तो सरकारी आंकड़ा है. लेकिन महिला संगठनों का दावा है कि कई मामले तो पुलिस के पास तक नहीं पहुंचते. महिला की मौत के बाद समाज के दबाव में दोनों पक्षों के बीच अदालत से बाहर ही समझौता हो जाता है. अगर उन मामलों को ध्यान में रखा जाए तो यह संख्या दोगुनी हो सकती है.
कितना गलत इस्तेमाल हो रहा है महिला सुरक्षा कानूनों का?
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2022 में हुई मौतों के मामले में उत्तर प्रदेश (2,218), बिहार )1,057) और मध्य प्रदेश (518) क्रमश पहले से तीसरे नंबर पर थे. इससे साफ है कि ऐसी ज्यादातर घटनाएं उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में ही होती हैं.
तीन महीने में कई मामले
अब ताजा मामले में उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में रहने वाली निक्की नामक एक महिला की शादी के करीब नौ साल बाद रहस्यमय परिस्थितियों में जलकर मौत हो गई. उसकी बहन कंचन की शादी भी उसी घर में हुई है. कंचन का आरोप है कि निक्की के पति और उसके ससुर ने ही उनकी बहन को जला कर मार डाला. निक्की और उसके पिता का आरोप है कि ससुराल वाले 36 लाख नकद और एक महंगी कार की मांग में निक्की पर शारीरिक अत्याचार करते थे और आखिर उसकी हत्या कर दी.
यह स्थिति तब है जब दिसंबर, 2016 में निक्की की शादी में उसके पिता भिखारी सिंह ने नोटबंदी के बावजूद दिल खोल कर खर्च किया था और एक कार भी दहेज में दी थी. पुलिस ने इस मामले में निक्की के पति, जेठ और सास-ससुर को गिरफ्तार कर लिया है.
वैसे, बीते तीन महीनों में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं.
न्याय की आस में भारत की "हनीमून दुल्हनें"
इससे पहले उत्तर प्रदेश के ही अलीगढ़ में एक महिला के शरीर पर गर्म इस्त्री (आयरन) सटाने के कारण उसकी मौत हो गई थी. उसके परिवार ने दावा किया कि दहेज के कारण उसका नियमित उत्पीड़न किया जाता था. उसके बाद इसी राज्य के पीलीभीत में कथित रूप से ससुराल पक्ष की दहेज की मांग पूरी नहीं कर पाने की वजह से एक महिला की जलाकर हत्या कर दी गई थी. इसी दौरान चंडीगढ़ में एक नवविवाहिता ने भी कथित रूप से दहेज उत्पीड़न से तंग आकर अपनी जान दे दी थी.
इसके अलावा दो घटनाएं तमिलनाडु से सामने आईं. पहली घटना में पोन्नेरी के पास एक महिला ने शादी के महज चार दिनों के भीतर ही कथित उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली. दूसरी घटना में भी इसी वजह से एक युवती ने शादी के दो महीने के भीतर ही अपनी जान दे दी.
यह घटनाएं इस बात का सबूत हैं कि कभी नवविवाहित जोड़ों की मदद के लिए दिए जाने वाले उपहार से शुरू हुई दहेज प्रथा नामक इस सामाजिक कुरीति की जड़ें कितनी गहरी हैं.
क्या कहता है कानून?
देश में दहेज प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कई कानून मौजूद हैं. बावजूद इसके यह प्रथा धड़ल्ले से जारी है. वर्ष 1961 में बने दहेज निषेध अधिनियम के मुताबिक, दहेज के लेन-देन या इसमें सहयोग करने वालों को पांच साल की सजा और 15 हजार तक के जुर्माने का प्रावधान है. दहेज उत्पीड़न से कई दूसरे भी कानून हैं जिनके तहत अभियुक्त को सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है.
भारत में अब भी कायम हैं दहेज प्रथा के वीभत्स परिणाम
भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में भी दहेज हत्या और उत्पीड़न से निपटने के प्रावधानों को जस का तस रखा गया है. बीएनएस की धारी 80 (1) के तहत शादी के सात साल के भीतर अस्वाभाविक परिस्थिति में किसी महिला की मौत को दहेज हत्या की श्रेणी में रखा जा सकता है. धारा 80 (2) के तहत ऐसे मामले में दोषियों को सात साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है.
बीएनएस की धारा 86 के तहत जानबूझकर किए गए किसी भी ऐसी कार्रवाई को क्रूरता की श्रेणी में रखा गया है, जिससे किसी महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया जा सकता हो या फिर उसे गंभीर शारीरिक या मानसिक नुकसान का अंदेशा हो.
क्या है वजहें?
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि तमाम कानूनों के बावजूद अदालत में न्याय मिलने में होने वाली असामान्य देरी से दहेज मांगने वालों को मनोबल बढ़ता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हर साल सामने आने वाली सात हजार घटनाओं में से सिर्फ साढ़े चार हजार में ही समय से चार्जशीट दायर की जाती है. असामान्य देरी के कारण कई मामलों में सबूत के अभाव में दोषी बेदाग बच निकलते हैं. शुरुआत में पुलिस भी ऐसे मामले को गंभीरता से नहीं लेती. जो मामले अदालत में पहुंचते हैं उनमें से 90 फीसदी में असामान्य तौर पर देरी होती है.
महिला कार्यकर्ता सुष्मिता बनर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "दहेज अब सामाजिक कोढ़ बन चुका है. 21वीं सदी में भी इस मामले में समाज की मानसिकता नहीं बदली है. हर साल करीब सात हजार मामले सामने आते हैं. लेकिन उनमें से सौ मामलों का ही निपटारा संभव होता है." वो बताती हैं कि ऐसी घटनाओं में पुलिस और न्यायपालिका के बीच तालमेल नहीं होने की वजह से भी अदालती कार्रवाई में देरी होती है. खासकर ग्रामीण इलाकों में तो पुलिस पहले स्थानीय स्तर पर ही इन घटनाओं में मध्यस्थता कर उनको सुलझाने का प्रयास करती है. नतीजतन कई मामले अदालत तक ही नहीं पहुंचते.
एक कॉलेज में समाजशास्त्र की प्रोफेसर डॉक्टर शिवानी हालदार डीडब्ल्यू से कहती हैं, "कई मामलों में पीड़ितों के परिजन सामाजिक कलंक, कानूनी जागरूकता की कमी और परिवार व समाज के दबाव के कारण दहेज के कारण होने वाली मौतों की पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं कराई जाती. कई मामलों में पुलिस की लापरवाही की वजह से दोषियों के खिलाफ ठोस सबूत नहीं मिल पाते."
कैसे लगेगा अंकुश?
समाजशास्त्रियों का कहना है कि दहेज उत्पीड़न या हत्या के मामलों की शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया आसान बनानी होगी. इसके साथ ही पुलिस को भी ऐसी शिकायतों का गंभीरता से संज्ञान लेकर आपराधिक मामलों की तरह इनकी जांच करनी होगी. इसके अलावा ऐसी घटनाओं की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में कर अभियुक्तों को शीघ्र सजा सुनानी होगी. इन तमाम उपायों को एकीकृत तरीके से लागू करने पर ही इस कलंक से छुटकारा मिल सकेगा.
डा. शिवानी हालदार कहती हैं, "महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना इस दिशा में पहला ठोस कदम है. बाल विवाह को रोकने वाले कानून और सूचना के अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल कर लड़कियों की स्कूली शिक्षा पर जोर देना चाहिए ताकि कम उम्र में होने वाली शादियां रोकी जा सकें."
कलकत्ता हाईकोर्ट में एडवोकेट मीनाक्षी मित्र डीडब्ल्यू से कहती हैं, "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं को गंभीरता से लागू करना होगा. इसके अलावा दहेज प्रथा के खिलाफ बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है." वो कहती हैं कि जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, कोई भी कानून इस प्रथा पर अंकुश नहीं लगा सकता. इस प्रथा के जारी रहने तक इसकी वजह से होने वाली मौतों के सिलसिले को रोकना भी बेहद मुश्किल है.