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असम में मतदाता सूची का 'गहन' नहीं 'विशेष पुनरीक्षण' क्यों?

प्रभाकर मणि तिवारी
१८ नवम्बर २०२५

केंद्रीय चुनाव आयोग ने अब पूर्वोत्तर राज्य असम में भी 22 नवंबर से मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण का निर्देश दिया है. लेकिन यह प्रक्रिया फिलहाल बाकी 12 राज्यों में चल रहे एसआईआर से अलग होगी. आखिर इसकी क्या वजह है?

2024 लोकसभा चुनाव में असम में मतदान करती एक महिला
चुनाव आयोग ने असम की मतदाता सूची के विशेष संशोधन के जो नियम तय किए हैं उनके मुताबिक किसी भी मतदाता को अपनी पात्रता साबित करने की जरूरत नहीं हैतस्वीर: Anupam Nath/AP Photo/picture alliance

असम की मतदाता सूची बीते कई दशकों से विवादों के घेरे में रही है. राज्य में नागरिकता पर विवाद भी काफी पुराना है. तमाम राजनीतिक संगठन इसमें बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम होने के आरोप लगाते रहे हैं.

अस्सी के दशक में घुसपैठ के मुद्दे पर करीब छह साल तक व्यापक आंदोलन झेल चुके इस सीमावर्ती राज्य में घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए ही नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस यानी एनआरसी की कवायद शुरू की गई थी. लेकिन बरसों चली इस कवायद पर करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद जब सूची तैयार हुई तो 19 लाख से ज्यादा नाम इससे बाहर हो गए थे. इसके बाद यह पूरी कवायद भी विवादों में घिर गई. इस मुद्दे पर हजारों मामले विभिन्न अदालतों में लंबित है. राज्य सरकार ने भी अब तक एनआरसी की अंतिम सूची को मंजूरी नहीं दी है.

कैसे होगा असम में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण

बीते चार नवंबर से देश के विभिन्न राज्यों में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की कवायद शुरू हुई है. इस कवायद में खरा उतरने के लिए मतदाता या उसके माता-पिता या दादा-दादी का नाम वर्ष 2002 की मतदाता सूची में होना जरूरी है. ऐसे सबूत नहीं होने की स्थिति में मतदाता को आयोग की ओर से तय 12 में से कोई एक दस्तावेज देना होगा. हालांकि यह कवायद भी विवादों में घिरी है. खासकर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में इसका काफी विरोध हो रहा है. तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल सरकार ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं भी दायर की है.

पश्चिम बंगाल में क्यों कड़ी चुनौती है एसआईआर की प्रक्रिया?

लेकिन असम का मामला इससे अलग है. चुनाव आयोग ने राज्य की मतदाता सूची के विशेष संशोधन के जो नियम तय किए हैं उनके मुताबिक किसी भी मतदाता को अपनी पात्रता साबित करने की जरूरत नहीं है. इसके लिए पात्रता की तारीख एक जनवरी 2026 रखी गई है.

असम के मुख्य चुनाव अधिकारी अनुराग गोयल ने पत्रकारों को बताया, "यह कवायद 22 नवंबर से 20 दिसंबर तक चलेगी. इस दौरान बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) घर-घर जाकर मतदाताओं की मौजूदगी की पुष्टि करेंगे. 27 दिसंबर को मतदाता सूची का मसविदा प्रकाशित होगा. उसके बाद दावों और आपत्तियों के निपटान का दौर शुरू होगा. उनके निपटारे के बाद 10 फरवरी को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित होगी."

असम में भी अगले साल अप्रैल-मई में विधानसभा चुनाव होने हैं.

एसआईआर वाले बाकी राज्यों से अलग प्रक्रिया क्यों?

लेकिन आखिर असम में यह कवायद बाकी 12 राज्यों में इस समय चल रही कवायद से अलग क्यों है? असम चुनाव आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू को बताते हैं, "असम में नागरिकता तय करने के मानदंड देश के बाकी राज्यों के मुकाबले अलग हैं. वर्ष 2019 में राज्य में एनआरसी की कवायद हुई थी. लेकिन उसकी अंतिम सूची अब तक जारी नहीं की गई है. ऐसे में बाकी राज्यों की तरह विशेष गहन पुनरीक्षण की स्थिति में एनआरसी के साथ टकराव की आशंका है. इसके अलावा विदेशी न्यायाधिकरणों के समक्ष 10 हजार से ज्यादा मामले अभी लंबित हैं. एनआरसी की सूची से बाहर होने वाले लोगों ने अपनी नागरिकता साबित करने के लिए उस आंकड़े को चुनौती दी है."

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यह कवायद एसआईआर से इस मायने में भी अलग होगी कि इसके तहत मतदाताओं को किसी तरह का फॉर्म नहीं भरना होगा. वो इस दौरान अपने नाम जुड़वा, कटवा या संशोधित करा सकते हैं.

डी-वोटर्स का मुद्दा

असम में डी यानी संदिग्ध वोटर्स लंबे समय से एक बड़ा मुद्दा रहे हैं. यह ऐसे लोग हैं जिनकी नागरिकता संदिग्ध है. ऐसे वोटरों की पहचान की कवायद वर्ष 1997 में शुरू हुई थी. इनके नाम राज्य की मतदाता सूची में तो शामिल हैं. लेकिन यह लोग वोट नहीं डाल सकते.

चुनाव आयोग के ताजा निर्देश के मुताबिक, ऐसे वोटरों की यथास्थिति बनी रहेगी. चुनाव आयोग के सूत्रों का कहना है कि जब तक किसी अदालत या विदेशी न्यायाधिकरण से उनके पक्ष में फैसला नहीं आता, उनके नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते. ऐसे में ताजा कवायद से उनको कोई फायदा नहीं होगा.

दरअसल, डी यानी संदिग्ध वोटर शब्द वर्ष 1985 के असम समझौते से अस्तित्व में आया था. इसके तहत केंद्र सरकार ने तय किया था कि 24 मार्च 1971 के बाद अवैध तरीके से असम आने वाले लोगों को विदेशी मानते हुए उनको इस श्रेणी में रखा जाएगा. वर्ष 1997 में असम की मतदाता सूची के संशोधन के बाद करीब तीन लाख लोगों के नाम इस सूची में शामिल किए गए थे. उनकी नागरिकता सवालों के घेरे में थी. उनमें से हजारों लोगों ने इस फैसले को अदालत में चुनौती दी है. इनमें से ज्यादातर मामले राज्य के विदेशी न्यायाधिकरणों के समक्ष लंबित हैं. ऐसे लोगों को अपनी नागरिकता खुद साबित करनी होती है. असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के मुताबिक राज्य में फिलहाल करीब 97 हजार ऐसे वोटर हैं.

स्वागत और विरोध

असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने आयोग के फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि एक जनवरी, 2026 को पात्रता की तारीख तय करने से साफ-सुथरी, संशोधित और सटीक मतदाता सूची तैयार करने में सहायता मिलेगी.

भाजपा ने भी इसका स्वागत किया है. पार्टी के एक प्रवक्ता ने डीडब्ल्यू से बातचीत में दावा किया, "कांग्रेस ने बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार के लोगों को फर्जी तरीके से मतदाता सूची में शामिल किया है. इस कवायद से ऐसे लोग सूची से बाहर हो जाएंगे."

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लेकिन कांग्रेस ने इस कवायद की आलोचना की है. पार्टी के एक प्रवक्ता ने डीडब्ल्यू से कहा, "बीजेपी अपने चुनावी हितों को साधने के लिए इसका इस्तेमाल कर रही है. चुनाव आयोग भी उसके कहने पर चल रहा है."

सीपीएम ने इसे चुनावी लोकतंत्र पर हमला बताते हुए इसकी निंदा की है. पश्चिम बंगाल में पार्टी के एक नेता सोमनाथ बारुई ने डीडब्ल्यू से कहा, "चुनाव आयोग ने सत्तारूढ़ बीजेपी के कहने पर ही इस कवायद का फैसला किया है. असम में इससे पहले नागरिकता के सवाल पर तमाम फैसले विवादास्पद ही रहे हैं. वह चाहे एनआरसी का मुद्दा हो या फिर डी-वोटरों का."

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि असम के मामले को बाकी राज्यों से अलग रखने के आयोग के फैसले पर सवाल उठना लाजिमी है. खासकर, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में तमाम राजनीतिक दल इस कवायद को अपने हित में भुनाने का प्रयास कर रहे हैं. लोगों को वर्ष 2002 की मतदाता सूची में अपना या परिजनों का नाम तलाशने में भारी मशक्कत करनी पड़ रही है. लेकिन असम का मामला इससे अलग है. वहां लोगों को अपनी पहचान साबित नहीं करनी होगी.

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