मौत की सजा खत्म करने के पक्ष में नहीं है भारत
१० मार्च २०२३इस साल फरवरी महीने में उत्तर प्रदेश की एक विशेष अदालत ने ‘इस्लामिक स्टेट (आईएस)' मॉड्यूल को संचालित करने के दोषी सात लोगों को मौत की सजा सुनाई है. इन लोगों को 2017 में गिरफ्तार किया गया था. अधिकारियों को सूचना मिली थी कि यह समूह देश के अलग-अलग हिस्सों में विस्फोट करने की योजना बना रहा था.
इन लोगों पर 2017 में एक ट्रेन में बम विस्फोट करने सहित कई अन्य आतंकी गतिविधियों में संलिप्त होने का आरोप लगा. राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के प्रवक्ता ने मीडिया को बताया कि यह समूह ‘इंटरनेट के माध्यम से कट्टरपंथ को बढ़ावा देने' का काम कर रहा था और इसका उद्देश्य भारत में आईएस की विचारधारा को बढ़ावा देना था.
एनआईए ने इन लोगों को मौत की सजा सुनाए जाने के फैसले को ‘एक और मील का पत्थर' करार दिया, जबकि मृत्युदंड अभी भी देश में बहस का एक विषय है.
एक संयोग यह भी है कि जिस दिन इन लोगों को मौत की सजा सुनाई गई उसी दिन संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार विभाग के उच्चायुक्त वोल्कर तुर्क ने मांग किया कि जिन 79 देशों में मृत्युदंड का प्रावधान है वे इसे खत्म करने की दिशा में उचित प्रयास करें.
उन्होंने कहा, "अगर हम इस अमानवीय सजा को खत्म करने की दिशा में अपना प्रयास जारी रखते हैं, तो हम अपने समाज में मानवता के लिए सम्मान सुनिश्चित कर सकते हैं.”
मौत की सजा को लेकर बहस
भारतीय अदालतें हत्या, बाल यौन हिंसा और आतंकवाद जैसे गंभीर अपराधों के लिए मृत्युदंड दे सकती हैं. हालांकि, वर्ष 1980 वह महत्वपूर्ण साल था जब देश में मौत की सजा को लेकर गंभीर बहस की शुरुआत हुई.
दरअसल, पंजाब के एक ट्रायल कोर्ट ने तीन लोगों की हत्या के लिए दोषी पाए गए बचन सिंह नाम के व्यक्ति को मौत की सजा सुनाई थी. सिंह ने सजा से बचने के लिए उच्च न्यायालय का रूख किया, लेकिन वहां भी सजा बरकरार रखी गई. इसके बाद, उन्होंने देश के सर्वोच्च न्यायालय का
दरवाजा खटखटाया और कहा कि किसी भी मामले में मृत्युदंड की संवैधानिकता की जांच होनी चाहिए, जिसके कारण एक ऐतिहासिक फैसला आया.
इसके बाद, पांच न्यायाधीशों की पीठ नियुक्त की गई, जिसने भारत में किसी को मौत की सजा सुनाते समय तमाम पहलुओं पर विचार करने के लिए एक रूपरेखा और दिशानिर्देश निर्धारित किया.
सजा सुनाने की मौजूदा संरचना में कमी
बचन सिंह मामले की वजह से ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर (दुर्लभतम)' सिद्धांत लागू हुआ. इसका मतलब है कि अदालतों को सिर्फ दुर्लभतम मामलों में ही मृत्युदंड देना चाहिए. दिशा-निर्देशों में यह भी शामिल है कि सजा पर निर्णय लेने से पहले अदालतों को अपराध की गंभीरता और सजायाफ्ता व्यक्ति की जीवन परिस्थितियां, जैसे कि उसकी उम्र, पारिवारिक पृष्ठभूमि, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं पर भी विचार करना चाहिए.
इसके अलावा, इस पीठ ने यह भी निर्धारित किया कि मृत्युदंड तभी दिया जाना चाहिए जब कोई राज्य यह साबित कर सके कि वह अपराधी अब कभी नहीं सुधर सकता.
सुधारात्मक न्याय पर दिशानिर्देशों के जोर के बावजूद, कई सवालों के जवाब अधूरे छोड़ दिए गए. इस बारे में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दिया गया कि किसी दोषी व्यक्ति के जीवन की परिस्थितियों पर साक्ष्य कौन इकट्ठा करेगा या यह किसकी जिम्मेदारी है कि वह इन साक्ष्यों को अदालत में पेश करे. साथ ही, डेटा इकट्ठा करने में कितना समय लगना चाहिए या अदालत को जीवन की परिस्थितियों का आकलन कैसे करना चाहिए.
प्रो बोनो लिटिगेशन एंड पब्लिक एंगेजमेंट सेंटर द्वारा किए गए कानूनी शोध ‘प्रोजेक्ट 39ए' से पता चलता है कि ट्रायल के दौरान 66.7 फीसदी मामलों में आरोपियों की जीवन की परिस्थितियों पर विचार नहीं किया गया. इस वजह से 2018 और 2020 के बीच 306 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई.
पर्यवेक्षकों का कहना है कि मौत की सजा देना असंगत, मनमाना और संभावित रूप से भेदभावपूर्ण है, क्योंकि कोई न्यायाधीश पक्षपात और पूर्वाग्रहों का शिकार होकर भी सजा सुना सकता है.
2022 में, 42 वर्षों में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सजा सुनाने की मौजूदा संरचना में कमी है. न्यायालय ने इस कमी को दूर करने के लिए एक अन्य संवैधानिक पीठ का गठन किया है.
हालांकि, जहां एक ओर सर्वोच्च न्यायालय मौत की सजा सुनाने के मामलों में सुधार के तरीकों की तलाश कर रहा है, वहीं दूसरी ओर भारत के अलग-अलग ट्रायल कोर्ट में लगातार मौत की सजा सुनाई जा रही है.
पिछले साल 165 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई, जो दो दशकों में सबसे ज्यादा संख्या है. "भारत में मौत की सजा: वार्षिक सांख्यिकी रिपोर्ट 2022” से पता चलता है कि 2022 के अंत तक 539 लोग भारत में मृत्युदंड पाने का इंतजार कर रहे थे, जो 2004 के बाद से सबसे अधिक संख्या है.
मृत्युदंड खत्म करने को लेकर बहस तेज
2015 से देश में मौत की सजा को लेकर बहस तेज हो गई है. विस्तृत अध्ययन के बाद, कानून आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आतंकवाद से जुड़े मामलों को छोड़कर अन्य मामलों में इस सजा को खत्म कर देना चाहिए.
रिपोर्ट में तर्क दिया गया है कि मौत की सजा असंवैधानिक है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन है.
भारतीय गृह मंत्रालय ने 2018 में विभिन्न राज्य सरकारों से मृत्युदंड को समाप्त करने के प्रस्ताव पर जवाब देने को कहा था. जवाब देने वाले 14 राज्यों में से केवल दो ने मृत्युदंड को समाप्त करने का समर्थन किया. बाकी 12 राज्यों ने तर्क दिया कि लोगों को गंभीर और हिंसक अपराध करने से रोकने के लिए मृत्युदंड की आवश्यकता है.
हालांकि, अधिकार समूहों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि दुनिया भर में मिले सबूतों से पता चलता है कि मृत्युदंड से अपराध को नियंत्रित करने पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है.
भारत में काफी कम लोगों को दी जाती है फांसी
1976 से लेकर अब तक दुनिया के 90 से अधिक देशों ने सभी तरह के अपराधों के लिए मृत्युदंड को समाप्त कर दिया है. वहीं, भारत के अलावा अमेरिका, जापान, चीन, ईरान, सऊदी अरब और इराक सहित कई अन्य देशों में अभी भी इस सजा का प्रावधान है.
दिसंबर 2022 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा में 125 देशों ने मृत्युदंड पर रोक के पक्ष में मतदान किया था. भारत ने इसके खिलाफ मतदान किया. 2021 में, मृत्युदंड पर रोक लगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में लाए गए एक मसौदा प्रस्ताव का भी भारत ने विरोध किया था.
हालांकि, भारत में मृत्युदंड का प्रावधान होने के बावजूद काफी कम लोगों को ही फांसी दी जाती है. वर्ष 2000 के बाद से अब तक, भारत में कुल आठ लोगों को ही फांसी दी गई है.