महाराष्ट्र में 180 किलोमीटर पैदल चल कर मुंबई पहुंचे हजारों किसानों के लॉन्ग मार्च ने एक अभूतपूर्व शांतिपूर्ण आंदोलन की मिसाल पेश की है. शिवप्रसाद जोशी पूछते हैं, जब सब दल किसानों के साथ हैं तो वे परेशान क्यों हैं?
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सोशल मीडिया लाल झंडों, लाल कमीजों और लाल टोपी और हंसिया हथौड़ा का बिल्ला टांगे इन किसानों की तस्वीरों से अटा पड़ा है. प्रमुख समाचार वेबसाइटों और कुछ टीवी समाचार चैनलों में भी इन दृश्यों को देखा जा सकता है. लेकिन मुंबई की सड़कों पर बहते इस लाल सागर के नजदीक पहुंचते ही कई और तस्वीरें हमें भारत के उस वंचित नागरिक की व्यथा भी दिखलाती हैं जिसे हम अन्नदाता कहते हैं. आदिवासी और बहुजन समुदायों के ये ज्यादातर आंदोलनकारी, छोटे स्तर के या भूमिहीन किसान हैं. घिसी हुई, मरम्मत की हुई चप्पलें, फटी हुई एड़ियां, अंगूठों और एड़ियों से रिसता खून लेकिन चेहरे दमकते हुए, हंसते हुए और मुट्ठियां कसी हुईं. मीडिया के लिए वे तस्वीरें भी मजेदार थीं जिनमें किसान अपने सिर पर छोटा सा सोलर पैनल रखे चल रहे थे, मोबाइल फोन चार्ज करने के लिए.
कहने को मुंबई में करीब 50 हजार किसानों और आदिवासियों का यह विशाल अनुशासित हुजूम वाम संगठन अखिल भारतीय किसान सभा की अगुवाई में उतरा है लेकिन बात इनके वाम या किसी और दल के समर्थक किसान होने की नहीं है. बात यही है कि इनका रंग या राजनीति देखकर इनसे मुंबई में किसी ने मुंह नहीं मोड़ा है. बोर्ड परीक्षाओं का ध्यान रखते हुए मुंबई में रविवार को दाखिल हुए किसानों को जगह जगह पानी पिलाने और नाश्ता कराने के लिए स्टॉल लगा दिए गए थे.
जानलेवा कपास
जीन संवर्धित कपास से वैसे तो किसानों को धनी होना था लेकिन इसने उनकी जान ले ली. महाराष्ट्र के विदर्भ से किसानों की कहानी, तस्वीरों के साथ.
तस्वीर: Isabell Zipfel
जहर में डूबे
कपास की खेती में नुकसान के कारण जान देने वालों में से एक किसान. गैर सरकारी संगठनों के मुताबिक नब्बे के दशक से अब तक दो लाख से ज्यादा किसान अपनी जान ले चुके हैं.
तस्वीर: Isabell Zipfel
औरतें अकेली
पीछे रह जाती हैं औरतें, जिन्हें अपने परिवार को पालना है. विकल्प के अभाव में ये औरतें खेत में काम करने को मजबूर होती हैं. कई किसान खेत में कपास के साथ सोया भी उगाते हैं. भारत में कपास बहुत छोटे खेतों में बोया जाता है, मशीनों की मदद के बिना.
तस्वीर: Isabell Zipfel
जीन संवर्धित
भारत में 90 फीसदी खेतों में अब जीन संवर्धित बीटी कपास उगाया जाता है. अमेरिकी कंपनी मोनसैंटो ने कपास के बीज में बासिलस थुरिंजिएंसिस (बीटी) बैक्टीरिया का जीन डाला ताकि पौधा कीड़ों से बचा रहे. कपास का ये बीज महंगा है, एक से ज्यादा बार बोया भी नहीं जा सकता.
तस्वीर: Isabell Zipfel
मोनसैंटो का बाजार
भारत मोनसैंटो के लिए बड़ा बाजार है. यहां एक करोड़ बीस लाख हेक्टेयर में कपास की खेती की जाती है. वर्धा में बीटी कपास बीज के साथ ही खरपतवार हटाने वाला राउंडप भी बेचा जा रहा है. ये भी मोनसैंटो का ही है. बीटी बीज राउंडप के प्रति प्रतिरोधी है.
तस्वीर: Isabell Zipfel
बिना सुरक्षा के
बीटी कपास के कारण विदर्भ में होने वाला कपास बिलकुल गायब हो गया है. खरपतवार हटाने वाली दवाई राउंडप हर कहीं बिकती है. ये दवाइयां अक्सर बहुत जहरीली होती हैं लेकिन फिर भी बिना मास्क और दस्ताने पहने डाली जाती हैं.
तस्वीर: Isabell Zipfel
जब बारिश न हो
कपास के लिए जमीन का बहुत उपजाऊ होना जरूरी नहीं है लेकिन इसे बढ़ने के लिए लगातार पानी चाहिए. कुछ बीटी कपास सूखा बिलकुल नहीं झेल सकते और विदर्भ में पानी की बड़ी समस्या है. यहां के किसान मानसून पर निर्भर हैं.
तस्वीर: Isabell Zipfel
कुल मिला के नुकसान
हर साल कपास के महंगे जीन संवर्धित बीज खरीदना, फसल का कम होना और बारिश नहीं होना.. इन सबके कारण किसान बुरी तरह कर्ज में डूब जाते हैं. वैकल्पिक नोबेल पुरस्कार जीतने वाली वंदना शिवा इसी को किसानों की आत्महत्या का मुख्य कारण मानती हैं.
तस्वीर: Isabell Zipfel
कम फसल
बीटी कपास के इस्तेमाल के बाद से विदर्भ के कई किसान ज्यादा लागत और कम फसल की शिकायत करते हैं. परेशानी इसलिए और बढ़ जाती है कि पानी नहीं है. भारत के दूसरे हिस्सों में इसी कपास के कारण अच्छी फसल होने की भी रिपोर्टें हैं.
तस्वीर: Isabell Zipfel
घर और स्टोरेज
महिला के घर में रखी हुई कपास. पति की मौत के बाद उसने सारी फसल घर मंगवा ली. वह उन एक करोड़ भारतीयों में शामिल है, जो खेती करते हैं. दुनिया भर का एक चौथाई कपास भारत से आता है. चीन और अमेरिका के बाद ये कपास का सबसे बड़ा उत्पादक है.
तस्वीर: Isabell Zipfel
नाउम्मीदी
विदर्भ में किसान बीटी कपास से दुखी हैं. हालांकि क्या इन आत्महत्याओं का कारण बीटी कपास का आना था, इस पर विवाद है. ये सभी तस्वीरें इजाबेल सिप्फेल ने ली हैं.
तस्वीर: Isabell Zipfel
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ऐसा संभवत पहली बार हो रहा था कि किसी राजनीतिक संगठन के आंदोलन का लोग तमाम विचारधाराओं से ऊपर उठकर स्वागत कर रहे थे. सिखों ने लंगर खोल दिए तो मुस्लिम समुदाय के लोगों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. और तो और मुंबई के कुछ साहित्यिक और कला संगठनों ने भी किसानों की आवाज को अपना साथ दिया. दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में लॉन्ग मार्च के समर्थन में सामाजिक और नागरिक संगठनों ने बैठकें की. ऐसा लगता था कि असली भारत की तस्वीर तो यहीं नुमाया है, देशभक्ति और राष्ट्रवाद का राग अलापते रहने वाली शक्तियों को भी मानो ये नागरिक गठबंधन एक संदेश देने की कोशिश कर रहा था. महाराष्ट्र में सत्ताधारी बीजेपी या शिवसेना हो या मनसे या कांग्रेस, एनसीपी- सारे दल इन किसानों के समर्थन में हैं. लेकिन किसान किसी राजनीतिक दल की सहानुभूति का नहीं बल्कि सरकार के ठोस फैसले का इंतजार कर रहे हैं.
पिछले साल नवंबर में महाराष्ट्र सरकार ने किसानों की कर्ज माफी का ऐलान किया था. राज्य विधानसभा में सरकार ने बताया कि 31 लाख से ज़्यादा किसानों के बैंक खातों में 12 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा ट्रांसफर कर दिए गए हैं. वास्तविक कर्ज माफी अभी दूर है. लेकिन किसानों की मांग यही नहीं है. वे स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की मांग कर रहे है. कुछ आदिवासी किसान समुदाय ऐसे हैं जो जंगल की जमीन पर पीढ़ी दर पीढ़ी बरसों से फसल उगाते आ रहे हैं, वनभूमि अधिकार अधिनियम, 2006 के मुताबिक एक दशक पहले ही उन्हें वह जमीन कानूनी तौर पर सौंप दी जानी चाहिए थी, मगर ऐसा नहीं हुआ.
जाने माने कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में 2004 में गठित आयोग ने 2006 में अपनी पांचवी और आखिरी रिपोर्ट में किसानों के लिए फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य, आंकी गई उत्पादन की औसत लागत से कम से कम 50 फीसदी ज्यादा के स्तर पर तय करने की सिफारिश की थी.
चॉकलेट: गरीब किसानों का अमीर प्रोडक्ट
दुनिया चॉकलेट का मजा लेती है, लेकिन उसे उगाने वालों के लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल होता है. देखिए, चॉकलेट की मिठास में छुपी स्याह दुनिया को.
तस्वीर: AP
खराब फसल
2016 में पश्चिमी अफ्रीका में कोकोआ की ज्यादातर फसल खराब हो गई. इसी इलाके से 70 फीसदी काकोआ सप्लाई होता है. चॉकलेट कोकोआ से ही बनाई जाती है. खराब फसल के चलते निर्यातकों ने दाम बढ़ा दिए लेकिन कोकोआ उगाने वाले किसानों को इससे फायदा नहीं हुआ.
तस्वीर: Fotolia
2017 से उम्मीदें
ब्राजील में भी कोकोआ की फसल खराब हुई. निर्यातकों और चॉकलेट कंपनियों को 2017 में आइवरी कोस्ट समेत पश्चिमी अफ्रीका के कई देशों में अच्छी फसल के संकेत मिले हैं.
तस्वीर: imago/Nature Picture Library
भारी मांग
दुनिया भर में चॉकलेट की मांग में लगातार इजाफा हो रहा है. बीते 10 साल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोकोआ का दाम दोगुना हो चुका है. लेकिन महंगी फसल के बावजूद कोकोआ उगाने वाले कई लोगों ने आज तक चॉकलेट चखा तक नहीं है. चॉकलेट उनके लिए बहुत महंगा है.
तस्वीर: jf Lefèvre/Fotolia
छोटे किसानों को ठेंगा
ऊंची कीमत का मतलब है, बेचने वालों को ज्यादा मुनाफा. पश्चिम अफ्रीका, इंडोनेशिया और दक्षिण अमेरिका में करीब 60 लाख से ज्यादा छोटे किसाने कोकोआ उगाते हैं. लेकिन उन्हें बाजार में चॉकलेट बार की कीमत का सिर्फ छह फीसदी दाम ही मिलता है. 1980 के दशक में किसानों को 16 फीसदी पैसा मिलता था.
तस्वीर: picture alliance/Photoshot
कहां से करें निवेश
आइवरी कोस्ट या घाना में कोकोआ की खेती करने वाले एक आम परिवार को बेहद गरीबी का सामना करना पड़ता है. ज्यादातर किसान गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं. वे नई पौध में निवेश नहीं कर सकते. पुराने पेड़ों पर कम फल आते हैं. नए किसान खरीद नहीं सकते.
तस्वीर: AP
बुजुर्गों के बुजुर्ग पेड़
पश्चिमी अफ्रीका के किसानों की औसत उम्र 50 साल है. बहुत ही कम आमदनी के चलते युवा कोकोआ की खेती में कोई भविष्य नहीं देखते. घाना में सिर्फ 20 फीसदी किसान अपने बच्चों को कोकोआ की खेती करते देखना चाहते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Nabil Zorkot
फेयर ट्रेड की कोशिश
एक तरफ कोकोआ के किसानों की गरीबी है तो दूसरी तरफ अमीर चॉकलेट निर्माता कंपनियां. तीन कंपनियां दुनिया भर में लिक्विड चॉकलेट के 74 फीसदी बाजार को नियंत्रित करती हैं. अब इन कंपनियों को साथ लाकर गरीब किसानों को उनका हक दिलाने की कोशिश की जा रही है. जर्मनी समेत कई देशों में फेयरट्रेड से बनी चॉकलेट की मांग बढ़ रही है.
तस्वीर: Colourbox
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ठीक एक साल पहले फरवरी मार्च के दिनों में देश की राजधानी दिल्ली में तमिलनाडु के बदहाल किसान पहुंचे थे. उनके प्रतिरोध को हथकंडा, नाटक और फोटोशूट की संज्ञा देने वालों की कोई कमी नहीं थी. डॉयचे वेले में प्रकाशित एक आलेख में बताया गया था कि 2004-05 और 2007-08 में कृषि सेक्टर की सालाना औसत वृद्धि दर पांच फीसदी थी. लेकिन 2008-09 और 2013-14 में ये गिर कर तीन फीसदी रह गई. इन्हीं अवधियों में अर्थव्यवस्था में क्रमशः नौ और सात फीसदी की सालाना औसत वृद्धि दर्ज की गी. कृषि की बदहाली का ठीकरा खराब मौसम की स्थितियों पर फोड़ा गया है.
आर्थिक वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलावों के चलते कृषि और सहयोगी सेक्टरों का जीडीपी में योगदान 2004-05 में 19 फीसदी से घटकर 2013-14 में 14 फीसदी रह गया. और इसमें भी अगर वानिकी और मछली पालन को हटा दें तो कृषि का राष्ट्रीय जीडीपी में करीब 12 फीसदी का योगदान ही रह गया है. लेकिन राज्य स्तर पर आंकड़े अलग और ऊपर हैं. 13 राज्यों में कृषि का जीडीपी योगदान 20 फीसदी से ज्यादा का है. सबसे अधिक 30 फीसदी अरुणाचल प्रदेश में, 20-29 फीसदी आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पंजाब, मध्य प्रदेश, और झारखंड आदि में, 15-19 फीसदी हरियाणा, हिमाचल, झारखंड, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक आदि में और 15 फीसदी से कम गुजरात, केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और उत्तराखंड में.
सिंचाई के उन्नत साधन, जल प्रबंधन, आदिवासियों को वनभूमि का आवंटन, कृषि बीमा, कृषि बाजार, फसल का बेहतर मूल्य, गांवों मे सड़क और बिजली आदि की समुचित व्यवस्था, पशुधन की देखरेख, कृषि तकनीक का विकास, बेहतर उर्वरक और ऋण सुविधा और अदायगी की आसान शर्तें- ये सब बातें एक प्रभावी और न्यायपूर्ण नीति के लिए जरूरी हैं. स्वामीनाथन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कमोबेश ये सारी बातें रखी हैं और अब तो केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि जल्द से जल्द उसकी सिफारिशों को लागू करे. किसान कब तक धरना प्रदर्शन करते रहेंगे और कब तक मजबूरी में अपनी जानें गंवाते रहेंगे. आत्महत्या के आंकड़े भी सबसे ज्यादा उसी महाराष्ट्र से हैं जहां आज किसान लामबंद होकर देश की कमर्शियल कैपीटल पर अपनी छाप छोड़ने पहुंचे हैं.
क्या होता है जब गांव में निकलता है सोना
बन्टाको अफ्रीकी देश सेनेगल के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में बसा एक छोटा सा गांव है. 2008 तक यह एक खेती किसानी करने वालों का एक आम गांव था लेकिन फिर इस गांव में मिला सोना और गांव की स्थिति ही बदल गयी.
तस्वीर: DW/F. Annibale
सुनहरे पत्थर
बन्टाको गांव में सोने की एक छोटी सी खदान का सारा काम देखने वाले डोऊसा कहते हैं, "जब हमने 2007-2008 में सोना खोजा, गांव पूरी तरह बदल गया. गांव में हम 2 हजार लोग रह रहे थे, लेकिन अब यहां 6 हजार से भी ज्यादा लोग रहते हैं". बन्टाको की खदानों में हर रोज 3 हजार से भी ज्यादा खनिक काम करते हैं, जहां उन्हें ऐसे पत्थर मिलते हैं, जिसमें थोड़ा सा सोना होता है.
तस्वीर: DW/F. Annibale
गांव के हवाले खनन का काम
इन अस्थाई सुरंगों में काम करने वाले खनिकों पर गांव के लोग अनाधिकारिक रूप से नजर रखते हैं. वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि यहां जो भी खनन के लिए आए उनके पास खनन मंत्रालय का जारी किया हुआ कार्ड हो. डोऊसा कहते हैं,"आप देखिए यहां स्टेट पूरी तरह गायब है, तो हम, गांव के लोग खनन के काम को देखते और नियंत्रित करते हैं. वो यह भी कहते हैं कि अगर किसी ने पहले उनसे बात नहीं की है तो वे वहां काम नहीं कर सकता.
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कमाई का जुगाड़
खदान में काम करने वाले मामाडोऊ कहते हैं, "मैं यहां बस काम करने के लिए हूं. मेरे गांव में कोई काम नहीं था. वहां नौकरियां नहीं थीं. यहां मैं घर भेजने के लिए पर्याप्त पैसे बचा रहा हूं. मुझे बस इसी बात की परवाह है. यहां काम करने की परिस्थितियां बहुत कठिन हैं. स्वास्थ्य, सुरक्षा नियम और श्रमिक अधिकार को कोई अता पता नहीं हैं."
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गांव की बढ़ी रफ्तार
सोने की खानों से पहले, गांव में कोई मोटरसाइकिल नहीं थी. सोने का व्यापार करने वालों को बन्टाको से दूर के इलाकों में आने जाने की जरूरत पड़ी. इसके बाद पेट्रोल बेचने वाले, मैकेनिक और दूसरे लोग इस गांव में पहुंचे और लोगों के मूलभूत जीवन को बदल दिया.
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औजारों की दुकानें भी खुलीं
बन्टाको की मुख्य सड़क के साथ-साथ गांव के कई हिस्सों में छोटी छोटी दुकानें खुल गयी हैं. इन दुकानों में घातु के वे सब औजार बिकते हैं जो मजदूरों को खुदाई के लिए चाहिए. गांव के एक दुकानदार मलिक कहते हैं, "मैं यहां बस व्यापार करने आया हूं". वे बन्टाको से दूर दूसरे इलाके में रहते हैं. कुछ साल पहले तक यहां दूर दूर तक ऐसा व्यापार कर सकने की कोई गुंजाइश नहीं थी.
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खेती से खनन तक का सफर
इस गांव में रह रहे 45 वर्षीय वाले केईटा कहते हैं, "सोने की खोज करने से पहले इस गांव में मुश्किल से कोई पक्का घर था. यहां तक कि मेरा अपना घर भी, जो अब सीमेंट और ईंट का बन गया है. ये कभी संभव नहीं था अगर मैं खेती ही करता रहता". केईटा पहले किसान थे लेकिन सोने के बारे में पता चलने के बाद वे भी खुदाई करने लगे.
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खनन के पुराने तरीके
सोने के खनन के लिए उद्योग में बहुत अच्छी मशीने हैं जो सोने और पत्थर को अलग कर देती हैं, लेकिन ये मशीनें महंगी हैं. गांव के जो लोग सोने की खुदाई करते हैं वे इन पत्थरों को तोड़ते हैं फिर उन्हें गीला करके कुछ समय के लिए छोड़ देते हैं. फिर इन्हें दुबारा पीस कर उसमें से सोना खोजने की कोशिश करते हैं.
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मेहनत का काम
दूसरी बार पत्थरों को थोड़कर बारीक किया जाता है. इसके बाद उन्हें एक छलनी से छाना जाता है और इस बात को सुनिश्चित किया जाता है कि उस मिश्रण में से सोने का हर टुकड़ा चुन लिया जाए. इस काम को करने में घरों में सभी लोग साथ देते हैं. गर्मियों की दिनों में जब स्कूलों में छुट्टी होती है तब बच्चे भी इस काम में हाथ बंटाते हैं.
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पर्यावरण को नुकसान
गांव की आर्थिक स्थिति में जो उछाल आया उससे गांव में काम करने वाले लोगों के साथ नयी परेशानियां भी साथ आईं. जैसे खनन से निकलने वाले कचरे की समस्या. गांव के लोग खुदाई के बाद के सारे कचरे को गांव के पास की नदी में यूं ही बहा देते हैं. गांव के कुछ लोगों को इस बात की भी चिंता है कि एक दिन जमीन से सोना निकलता बंद हो जाएगा. तब इस गांव का क्या होगा.