अमेरिका से मिलने वाले मुफ्त फंड पर नेपाल में हंगामा
२४ फ़रवरी २०२२नेपाल को अमेरिका से 500 मिलियन डॉलर का फंड लेना चाहिए या नहीं? इसपर फैसला करने के लिए नेपाल की संसद में 24 फरवरी से बहस शुरू होनी थी. मगर प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के आग्रह पर इसे शु्क्रवार तक के लिए टाल दिया गया है. इस मुद्दे पर शुक्रवार को बहस होगी या नहीं, बहस कितनी लंबी चलेगी, प्रस्ताव पास होगा या नहीं, अभी यह स्पष्ट नहीं है. फंड पर गठबंधन सरकार के सहयोगियों में मतभेद है. इस मुद्दे पर वोटिंग भी होनी है, जिसके चलते प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में दरार भी आ सकती है.
अमेरिका से फंड लेने के सवाल पर देश में पहले ही बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. आम लोगों से लेकर राजीतिक पार्टियों, नेताओं और सत्तारूढ़ गठबंधन के दलों तक की राय बंटी हुई है. फंड लेने या ठुकराने को लेकर नेपाल पर अमेरिका और चीन, दोनों तरफ से दबाव है. अमेरिका ने फैसला लेने के लिए नेपाल को 28 फरवरी तक का समय दिया है. अगर इस समयसीमा में नेपाल तय नहीं कर पाता, तो अमेरिका ने उसके साथ द्विपक्षीय संबंधों की समीक्षा करने की चेतावनी दी है. वहीं चीन ने अमेरिका को चेताया है कि वह नेपाल में दबाव देकर बात मनवाने वाली कूटनीति ना करे.
कैसा फंड है?
अमेरिका की एक एजेंसी है- दी मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (एमसीसी). यह अमेरिकी विदेश विभाग और 'यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डिवेलपमेंट' (यूएसएआईडी) से अलग एक सरकारी एजेंसी है. इसे 2004 में बनाया गया था. यह विकासशील देशों को आर्थिक विकास बढ़ाने, गरीबी घटाने और अपने संस्थानों को मजबूत बनाने के लिए आर्थिक मदद देती है.
2017 में एमसीसी ने नेपाल को 500 मिलियन डॉलर का फंड देने का फैसला किया. यह फंड एक 300 किलोमीटर लंबी हाई-वोल्टेज बिजली की ट्रांसमिशन लाइन बनाने के लिए दिया जाने वाला था. उम्मीद जताई गई थी कि इस निवेश के चलते नेपाल में मौजूद पनबिजली संभावनाओं का बड़े स्तर पर इस्तेमाल हो सकेगा. और, लगभग 40 हजार मेगावॉट तक की बिजली पैदा की जा सकेगी. इसके अलावा फंड का एक हिस्सा नेपाल में सड़कों की स्थिति सुधारने में खर्च करने की भी योजना थी. इन दोनों परियोजनाओं में नेपाल को भी करीब 130 मिलियन डॉलर का योगदान देना था.
दोनों देशों में इस बात को लेकर भी सहमति थी कि अमेरिका बिना किसी शर्त के यह फंड देगा. यह किसी कर्ज के रूप में नहीं दिया जाएगा. यानी, नेपाल को यह राशि अमेरिका को वापस नहीं लौटानी थी. ना ही इस फंड पर कोई ब्याज ही लगना था. इस ग्रांट को स्वीकार करने के लिए नेपाल की संसद को जून 2019 तक इसपर मुहर लगानी थी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. तत्कालीन सत्तारूढ़ गठबंधन 'नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी' (एनसीपी) में इस मुद्दे पर मतभेद था.
चीन का प्रभाव
एनसीपी, पुष्प कमल दहल की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओइस्ट सेंटर) और केपी शर्मा ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) का गठबंधन थी. 2015 में ओली के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ रहा था, खासतौर पर 2015 में भारत के नेपाल से लगी अपनी सीमा पर ब्लॉकेड लगाने के बाद से. नेपाल लैंडलॉक्ड देश है. उसके पास अपना समुद्र तट नहीं है. ऐसे में पेट्रोलियम, गैस सिलेंडर जैसे जरूरी सामानों की आपूर्ति के लिए वह भारत पर निर्भर था.
ब्लॉकेड के चलते वहां जरूरी चीजों की बड़ी किल्लत हो गई. तब चीन ने नेपाल की मदद की. मार्च 2016 में ओली चीन के दौरे पर गए. 2017 में नेपाल, चीन की महत्वांकाक्षी अंतर्देशीय परियोजना 'बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव' (बीआरआई) में शामिल हो गया. चीन ने वहां कई इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश किया. अक्टूबर 2019 में चीन के राष्ट्रपति शी चिनपिंग नेपाल यात्रा पर आए. 1996 में तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति जियांग जेमिन की नेपाल यात्रा के बाद पहली बार चीन के प्रीमियर यहां पहुंचे थे.
नई सरकार का रुख
ओली और प्रचंड के धड़े में लगातार तनाव गहराता गया. एनसीपी में बंटवारा हो गया. महीनों चली उठापटक के बाद ओली ने जुलाई 2021 में इस्तीफा दे दिया. इसके बाद नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में नई सरकार बनी. नेपाली कांग्रेस अमेरिका से फंड लेने के पक्ष में है. मगर सीपीएन (माओइस्ट) और सीपीएन (यूनिफाइड सोशलिस्ट) समेत उसके वामपंथी सहयोगी विरोध में हैं. उनका कहना है कि यह ग्रांट अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति का हिस्सा है, जिसका मकसद एशिया में चीन का मुकाबला करना. ओली की मुख्य विपक्षी पार्टी यूएमएल भी विरोध में है.
असहमतियों के बावजूद गठबंधन सरकार ने 20 फरवरी को एमसीसी बिल संसद में पेश किया. इसपर काफी शोर भी हुआ. वामपंथी पार्टियों के समर्थक संसद के बाहर विरोध करने जमा हुए. हंगामे के बीच यह बिल पेश करते हुए मंत्री ज्ञानेंद्र कार्की ने सभी दलों से इसका समर्थन करने की अपील की. उन्होंने कहा कि इस फंड के लिए नेपाल ने ही अमेरिका से अपील की थी क्योंकि यह राशि देश के विकास और अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद होगी. लेकिन इस अपील के बाद भी एमसीसी पर गतिरोध बना हुआ है.
विदेशी मदद पहले भी बन चुकी है राजनीतिक मुद्दा
अमेरिका ने कई बार कहा है कि एमसीसी केवल साथी देशों के विकास के लिए दिया जाने वाला फंड है. मगर फंडिंग पर नेपाल में संदेह है. यूट्यूब और सोशल मीडिया पर कई तरह की अफवाहें और गलत जानकारियां साझा की जा रही हैं. इनमें दावा किया जा रहा है कि यह फंड असल में नेपाल को जाल में फंसाने और चीन को घेरने की अमेरिकी साजिश का हिस्सा है. माओइस्ट पार्टी के नेता देव गुरुंग ने डीडब्ल्यू से बात करते हुए दावा किया कि अगर नेपाल एमसीसी कॉम्पैक्ट का हिस्सा बन जाता है, तो अमेरिकी सेनाओं को भी वहां तैनात होने की इजाजत मिल जाएगी.
इस मुद्दे पर पहले भी वामपंथी पार्टियां देशव्यापी हड़ताल कर चुकी हैं. पिछले हफ्ते हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों की पुलिस से झड़प भी हुई. यह पहला मौका नहीं है, जह किसी पश्चिमी देश से मिलने वाली सहायता या निवेश पर नेपाल में विवाद हुआ हो. 1990 के दशक के शुरुआती सालों में विश्व बैंक ने वहां एक 201 मेगावॉट की पनबिजली परियोजना और 122 मील सड़क बनाने का अनुबंध किया था. मगर इसका नेपाल में इतना विरोध हुआ कि 1995 में विश्व बैंक ने प्रस्ताव वापस ले लिया.
एसएम/ओएसजे (रॉयटर्स, डीडब्ल्यू)