सीरिया और यूक्रेन के बाद अब अफगानिस्तान पर पुतिन की नजर?
मसूद सैफुल्लाह
४ जनवरी २०१७
अफगानिस्तान में रूस की बढ़ती दिलचस्पी से बहुत से विश्लेषक हैरान हैं. युद्ध से तबाह इस देश में रूस क्या हासिल करना चाहता है? क्या सीरिया के बाद अफगानिस्तान अमेरिका और रूस के बीच जोर आजमाइश का अखाड़ा बनेगा?
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हाल के समय में रूस ने अफगानिस्तान में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. बहुत से विश्लेषक इस बात से हैरान हैं क्योंकि रूस ने कई सालों तक अफगानिस्तान में जारी संकट से दूरी बना कर रखी थी. यहां तक कि रूस ने 2001 में अफगानिस्तान में होने वाले अमेरिकी हमले और वहां तालिबान की सत्ता खत्म किए जाने का भी समर्थन किया था. पूर्व अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई ने कभी कहा था कि अफगानिस्तान ही अकेली ऐसी जगह है जहां अमेरिका और रूस के हित एक दूसरे से नहीं टकराते.
लेकिन अब इस इलाके में नए भूराजनीतिक समीकरण उभर रहे हैं और लगता है कि रूस ने तटस्थ ना रहने का फैसला किया है. हाल में अफगानिस्तान के मुद्दे पर मॉस्को में रूस, चीन और पाकिस्तान की बैठक हुई. यह बैठक अफगानिस्तान में रूस की बढ़ती दिलचस्पी का साफ संकेत देती है.
रूस ने पहली बार 2007 में तालिबान नेतृत्व के साथ संपर्क स्थापित किया और अफगानिस्तान की सीमा से लगने वाले मध्य एशियाई देशों में नशीले पदार्थों की तस्करी पर चर्चा की. अब फिर ऐसी खबरें है कि रूस तालिबान के संपर्क में है. विश्लेषकों की राय है कि इस बार वह सिर्फ नशीले पदार्थों की तस्करी पर बात नहीं कर रहा है. उनके मुताबिक रूस को लगता है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी नीतियां नाकाम हो गई हैं और इसीलिए वह हस्तक्षेप कर रहा है.
व्लादिमीर पुतिन के अलग अलग चेहरे
फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन 2016 के सबसे ताकतवर इंसान हैं. उनके बाद दूसरे नंबर पर अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप हैं. आइए, देखते पुतिन की शख्सियत के अलग-अलग पहलू.
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केजीबी से क्रेमलिन तक
पुतिन 1975 में सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी में शामिल हुए थे. 1980 के दशक में उन्हें जर्मनी के ड्रेसडेन में एजेंट के तौर पर नियुक्त किया गया. यह विदेश में उनकी पहली तैनाती थी. बर्लिन की दीवार गिरने के बाद वह वापस रूस चले गए. बाद में वे येल्त्सिन की सरकार में शामिल हो गए. बोरिस येल्त्सिन ने घोषणा की कि पुतिन उनके उत्तराधिकारी होंगे और उन्हें रूस का प्रधानमंत्री बनाया गया.
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पहली बार राष्ट्रपति
प्रधानमंत्री के तौर पर नियुक्ति के समय पुतिन आम लोगों के लिए एक अनजान चेहरा थे. लेकिन अगस्त 1999 में सब बदल गया जब चेचन्या के कुछ हथियारबंद लोगों ने रूस के दागेस्तान इलाके पर हमला किया. राष्ट्रपति येल्त्सिन ने पुतिन को काम सौंपा कि चेचन्या को वापस केंद्रीय सरकार के नियंत्रण में लाया जाए. नए साल की पूर्व संध्या पर येल्त्सिन ने अचानक इस्तीफे का ऐलान किया और पुतिन को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया.
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दमदार व्यक्तित्व
मीडिया में पुतिन की अकसर ऐसी तस्वीरें छपती रहती हैं जो उन्हें एक दमदार व्यक्तित्व का धनी दिखाती हैं. उनकी यह तस्वीर सोची में एक नुमाइशी हॉकी मैच की है जिसमें पुतिन की टीम 18-6 से जीती. राष्ट्रपति ने आठ गोल किए.
तस्वीर: picture-alliance/AP/A. Nikolsky
बोलने पर बंदिशें
रूस में एक विपक्षी रैली में एक व्यक्ति ने मुंह पर पुतिन के नाम की टेप लगा रखी है. 2013 में क्रेमलिन ने घोषणा की कि सरकारी समाचार एजेंसी रियो नोवोस्ती को नए सिरे से व्यवस्थित किया जाएगा. उसका नेतृत्व एक क्रेमलिन समर्थक अधिकारी को सौंपा गया जो अपने पश्चिम विरोधी ख्यालों के लिए मशहूर था. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर नाम की संस्था प्रेस आजादी के मामले में रूस को 178 देशों में 148वें पायदान पर रखती है.
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पुतिन की छवि
पुतिन को कदम उठाने वाले नेता के तौर पर जाना जाता है. केजीबी का पूर्व सदस्य होना भी इसमें मददगार होता है. इस छवि को बनाए रखने के लिए अकसर कई फोटो भी जारी होते हैं. इन तस्वीरों में कभी उन्हें बिना कमीज घोड़े पर बैठा दिखाया जाता है तो कभी जूडो में अपने प्रतिद्वंद्वी को पकटते हुए. रूस में पुतिन को देश में स्थिरता लाने का श्रेय दिया जाता है जबकि कई लोग उन पर निरंकुश होने का आरोप लगाते हैं.
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सवालों में लोकतंत्र
जब राष्ट्रपति पुतिन की यूनाइटेड रशिया पार्टी ने 2007 के चुनावों में भारी जीत दर्ज की तो आलोचकों ने धांधली के आरोप लगाए. प्रदर्शन हुए, दर्जनों लोगों को हिरासत में लिया गया और पुतिन पर लोकतंत्र को दबाने के आरोप लगे. इस पोस्टर में लिखा है, “आपका शुक्रिया, नहीं.”
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खतरों के खिलाड़ी
काले सागर में एक पनडुब्बी की खिड़की से झांकते हुए पुतिन. क्रीमिया के सेवास्तोपोल में ली गई यह तस्वीर यूक्रेन से अलग कर रूस में मिलाए गए इस हिस्से पर रूसी राष्ट्रपति पुतिन का पूरी तरह नियंत्रण होने का भी प्रतीक है.
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वॉशिंगटन स्थित वूड्रो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्कॉलर्स में विशेषज्ञ माइकल कूगेलमन ने डीडब्ल्यू को बताया, "रूस कई दशकों से अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर नजर रखे हुए है. लेकिन अब लगता है कि वह वहां चल रहे घटनाक्रम का फिर से हिस्सा बनना चाहता है, वह भी बड़े तरीके से.”
रूस को आशंका है कि इराक और सीरिया के बाद अफगानिस्तान तथाकथित इस्लामिक स्टेट के लिए नई सुरक्षित शरणस्थली बन सकता है. विशेषज्ञ कहते हैं कि रूस मध्य एशिया के पड़ोस में इस्लामिक स्टेट को नहीं चाहता.
पूर्व अफगान राजनयिक अहमद सैदी ने डीडब्ल्यू से कहा, "रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अफगानिस्तान में आईएस की मौजूदगी को अपने हितों के लिए बड़ा खतरा मानते हैं.” उनका कहना है कि रूस और तालिबान, दोनों आईएस को लेकर चिंतित हैं और उनके करीब आने की भी यही वजह है. पिछले दो साल के दौरान कई बार तालिबान और आईएस के लड़ाकों की झड़पें हुई हैं. दोनों ही गुट अफगानिस्तान में अपना दबदबा कायम करना चाहते हैं.
लेकिन कुगेलमन की राय है कि रूस तालिबान के साथ नजदीकी बढ़ाकर जोखिम मोल ले रहा है. वह कहते हैं, "रूस नॉन स्टेट एक्टर्स को मजबूत कर रहा है जो आईएस का प्रतिद्वंद्वी है, क्योंकि रूस को आईएस से ज्यादा डर सता रहा है.” लेकिन अफगानिस्तान में रूस की बढ़ती सक्रियता से क्षेत्र में भूराजनीतिक जटिलताएं बढ़ेंगी. हालांकि रूसी राजनयिक मानते हैं कि तालिबान के साथ उनके संपर्क सिर्फ शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए हैं. लेकिन पश्चिमी अधिकारियों का कहना है कि रूस और तालिबान के रिश्ते बहुत आगे निकल गए हैं.
देखिए, जर्मन सेना ने बदला हुआ अफगानिस्तान छोड़ा
बदला हुआ अफगानिस्तान छोड़ा जर्मन सेना ने
तालिबान के सफाए के अभियानों से लेकर अफगानी सुरक्षा बलों की ट्रेनिंग तक, जर्मन सेना ने अफगानिस्तान से कई भूमिकाएं निभाई हैं. अफगानिस्तान को युद्ध की तबाही से उबारने में जर्मन सेना की कोशिशों पर एक नजर.
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ऐतिहासिक दिन
जर्मन शहर बॉन में 5 दिसंबर 2001 को अफगानिस्तान मुद्दे पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ. हामिद करजई को अंतरिम अफगान सरकार का नया प्रमुख चुना गया. वे 2004 से लेकर 2014 तक देश के राष्ट्रपति रहे. दिसंबर 2001 में ही जर्मन संसद ने अफगानिस्तान में अपनी टुकड़ियां भेजने के पक्ष में वोट दिया.
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यूरोप के बाहर पहला युद्ध अभियान
11 जनवरी 2002 को 70 सैनिकों वाली पहली जर्मन टुकड़ी काबुल पहुंची. यहीं से अफगानिस्तान में जर्मन सेना के सक्रिय रूप से दखल देने की शुरुआत हुई. जर्मनी के लिए भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद से यह पहला मौका था जब उसने अपनी सेना यूरोप के बाहर कहीं भेजी हो.
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जान देकर जारी रखा मिशन
एक समय पर अफगानिस्तान में 5,350 जर्मन सैनिक तैनात थे, जो कि अमेरिका और ब्रिटेन के बाद सबसे बड़ी सैनिक टुकड़ी थी. इस अभियान में 55 जर्मन सैनिकों को अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ी.
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उत्तरी अफगानिस्तान पर फोकस
2008 की इस तस्वीर में जर्मन सेना को उत्तरी अफगानिस्तान के कुंडूस प्रांत में गश्त लगाते देखा जा सकता है. अक्टूबर 2003 से 2006 तक जर्मन सेना इस इलाके में तैनात थी. जर्मन सेना ने उत्तरी अफगानिस्तान में शांति और स्थायित्व का माहौल बनाने में अहम भूमिका निभाई.
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दिलों को जीतने की भी कोशिश
जर्मनी काबुल से बाहर जाकर प्रादेशिक पुनर्निर्माण टीम पीआरटी बनाने वाला पहला नाटो सदस्य था. टीम का उद्देश्य उत्तरी अफगानिस्तान में सुरक्षा व्यवस्था के अलावा नागरिक मदद पहुंचाने वाले कई प्रोजेक्ट्स का संचालन भी था.
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अफगान सुरक्षा बलों की ट्रेनिंग
नाटो सदस्यों ने अफगानिस्तान में स्थापित चार ट्रेनिंग केंद्रों में 60 हजार से भी अधिक अफगान सुरक्षा बलों को प्रशिक्षित किया है. इसमें जर्मन सेनाओं का बड़ा योगदान रहा और इस ट्रेनिंग प्रोजेक्ट पर जर्मनी ने 2012 तक लगभग 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर खर्च किए.
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राष्ट्रपति का इस्तीफा
सितंबर 2009 को एक जर्मन सेना अधिकारी ने तालिबान द्वारा कब्जे में ले लिए गए टैंकरों पर हवाई हमले के आदेश दिए. इस हमले में सौ से भी ज्यादा आम नागरिकों की भी मौत हो गई. जर्मन सेना को कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी. मई 2010 में अफगानिस्तान दौरे पर विवादास्पद बयान के कारण तत्कालीन जर्मन राष्ट्रपति हॉर्स्ट कोएलर को इस्तीफा देना पड़ा.
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सैनिकों की वापसी शुरू
2014 तक सभी नाटो सेनाओं को अफगानिस्तान से वापस बुलाने के निर्णय को अमल में लाते हुए जर्मन सेना ने अपनी सेनाएं 2010 से ही वापस बुलाना शुरु कर दिया. 2012 के अंत तक उत्तरी अफगानिस्तान में कैंप मार्मूल ही जर्मन सेना की प्रमुख छावनी रह गई थी.
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अंतिम ठिकाना
कैंप मार्मूल जर्मन सैनिकों का अंतिम पड़ाव रहा जिसे 2012 से ही छोटा करने के कदम उठाए जा रहे थे. 800 जर्मन सैनिकों वाला यह कैंप 2015 के बाद भी बरकरार रहेगा और अफगानी सुरक्षा बलों को सलाह और प्रशिक्षण देने का काम जारी रखेगा.
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नया अफगानिस्तान मिशन
लगभग 12 हजार विदेशी सैनिकों के 2016 के अंत तक अफगानिस्तान में ही रहने की उम्मीद है. ये अफगानी सेनाओं को प्रशिक्षण देने का काम जारी रखेंगे. 2015 में शुरू हो रहे नाटो के नए ट्रेनिंग मिशन में भी जर्मनी एक महत्वपूर्ण सहयोगी की भूमिका निभाएगा.
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वॉल स्ट्रीट जरनल ने अफगान और पश्चिमी अधिकारियों के हवाले से लिखा है कि रूस अफगान सरकार और तालिबान से अलग हो चुके पूर्व वारलॉर्ड गुलबुद्दीन हिकमतयार के बीच समझौता नहीं होने दे रहा था. कभी काबुल के कसाई के नाम से कुख्यात रहे गुलबुद्दीन ने पिछले साल अफगान सरकार के साथ शांति समझौता किया था. अफगानिस्तान चाहता है कि हिकमतयार का नाम संयुक्त राष्ट्र की ब्लैकलिस्ट से हटा दिया जाए, लेकिन वॉल स्ट्रीट जनरल के मुताबिक रूसी अधिकारी इसमें बाधा डाल रहे हैं.
जानकारों का कहना है कि रूस तालिबान का इस्तेमाल कर अमेरिका पर दबाव बढ़ाना चाहता है. कुगेलमन कहते हैं कि यह तय कर पाना मुश्किल है कि तालिबान के साथ रूस की बढ़ती नजदीकियों का असल मकसद क्या है. उनके मुताबिक, "हो सकता है कि रूस ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है' की नीति पर चल रहा हो.”
पूर्व अफगान राजनयिक सैदी मानते हैं कि यूक्रेन और सीरिया के बाद अफगानिस्तान रूस और अमेरिका की तनातनी नया अखाड़ा बन रहा है. विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे युद्ध से तबाह अफगानिस्तान का कुछ भला नहीं होगा क्योंकि उसे तो स्थिरता और शांति चाहिए.
अफगानिस्तान में लड़की बनी लड़ाका, देखिए
अफगानिस्तान: लड़की बनी लड़ाका
अफगानिस्तान की महिला फौजियों से मिलिए...
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अफगान महिला फौजी
जिस देश में लड़कियों के स्कूलों को बम से उड़ा दिया जाता है, वहां औरतों को सेना की वर्दी पहनाना और बंदूक थमाना बहुत बड़ी बात है. अफगानिस्तान में ऐसा ही हो रहा है. मिलिए, अफगानिस्तान की महिला फौजियों से.
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नया नया है
अफगानिस्तान में सेना के पुनर्गठन के बाद महिलाओं का पहला बैच आर्मी ऑफिसर एकेडमी से 2015 में निकला.
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एकेडमी
महिला सैनिकों को काबुल की अफगान नेशनल आर्मी ऑफिसर एकेडमी में ट्रेनिंग दी जाती है.
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ट्रेनिंग
ट्रेनिंग तो अफगान ही देते हैं लेकिन इसमें ब्रिटिश आर्मी के अफसर उनकी मदद करते हैं.
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काबुल से पहला बैच
पहले बैच में 23 कैडेट्स थीं जिनमें से 19 को कमिश्न मिला.
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पढ़ाई भी
उन्हें इंग्लिश और लीडरशिप स्किल भी पढ़ाए गए हैं.
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हथियार और खेल
हथियारों की ट्रेनिंग भी हुई है और साथ ही खेलों में भी प्रशिक्षित किया गया है.
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पुरुषों के बराबर
महिलाओं ने हर स्तर पर पुरुषों के साथ ट्रेनिंग की है.
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अभी भी कमी है
अब भी बहुत ज्यादा महिलाएं आर्मी में भर्ती नहीं हो रही हैं.