1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

क्यों पस्त हो गया अमेरिका कोरोना वायरस के सामने?

ब्रजेश उपाध्याय, वाशिंगटन
१५ अप्रैल २०२०

ओबामा ने व्हाइट हाउस छोड़ने से पहले ट्रंप के साथ मिलकर एक काल्पनिक महामारी के खिलाफ अभ्यास किया था और पूरी रणनीति उनके सुपुर्द की थी. लेकिन ट्रंप ने सत्ता संभालते ही उसे दरकिनार कर दिया और उस विभाग को ही खत्म कर दिया.

USA Präsident Donald Trump Coronavirus Pressekonferenz
तस्वीर: Getty Images/W. McNamee

कोरोना वायरस के सामने दुनिया का सबसे शक्तिशाली और सबसे धनी देश अमेरिका बेबस नजर आ रहा है. अस्पताल और स्वास्थ्य सेवाओं में वहां तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों जैसी लाचारी दिख रही है. दशकों से महामारियों और अन्य विपदाओं के खिलाफ दुनिया का हाथ थामने वाला अमेरिका खुद बैसाखियां ढूंढ रहा है.

अपने-अपने घरों में बंद अमेरिकी जनता हर सुबह इस उम्मीद के साथ जगती है कि महामारियों पर बनी हॉलीवुड की डरावनी फिल्मों की तरह शायद इस वायरस का भी अंत निकट हो. लेकिन हर सुबह और ज्यादा मौतों की खबर ला रही है. दुनिया की वित्तीय राजधानी कहलाने वाले न्यूयॉर्क में लाशों को सामूहिक रूप से दफनाया जा रहा है. अमेरिकी मीडिया राष्ट्रपति ट्रंप पर उंगली उठा रहा है, ट्रंप मीडिया और चीन दोनों को कोस रहे हैं. जानकारों की मानें तो स्थिति को बिगड़ने देने में ट्रंप और उनके प्रशासन की गलती तो है ही, पिछले दो दशकों से चली आ रही अमेरिकी नीतियां भी इसकी जिम्मेदार हैं.

पिछले बीस सालों में हर प्रशासन के सामने विशेषज्ञों, सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी रिपोर्टों और खुफिया अधिकारियों ने कोरोना वायरस जैसी महामारी की तस्वीर पेश की है, उसके खिलाफ तैयार रहने की सलाह दी है. लेकिन हर नए राष्ट्रपति ने पुराने राष्ट्रपति की सलाहों को नजरअंदाज किया है और फिर जब विपदा आई है तब जाकर तैयारियां शुरू हुईं हैं, टास्कफोर्स बने हैं. विपदा के काबू में आने के बाद सब कुछ फिर जस का तस. राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने 1998 में जैविक हथियारों से हमलों और इस तरह की महामारियों के खिलाफ तैयारी के लिए स्वास्थ्य उपकरणों और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए सुरक्षित कपड़ों और मास्क का आपातकालीन भंडार तैयार करने के लिए एक उच्च अधिकारी की नियुक्ति की थी.

राष्ट्रपति बुश ने 2001 में सत्ता संभालते ही उस पद को खत्म कर दिया लेकिन ग्यारह सितंबर के हमले के बाद उनकी नीति भी बदली. अमेरिका जैविक और रासायनिक हथियारों के खतरे के प्रति सचेत हुआ. कुछ ही दिनों में बुश प्रशासन ने सार्स बीमारी का सामना किया और अपने अनुभवों को अगले राष्ट्रपति ओबामा के साथ साझा किया. लेकिन ओबामा ने भी पहले उसे नजरअंदाज ही किया. ये वही ओबामा थे जिन्होंने छह साल पहले एक सेनेटर के रूप में न्यूयॉर्क टाइम्स में लेख लिखकर इस तरह की महामारी के खिलाफ अमेरिका और दुनिया को तैयार रहने की नसीहत दी थी.

राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी आंखें खोलीं एच1एन1स्वाइन फ्लू और फिर इबोला के संकट ने. और उन्होंने इस तरह की महामारियों से जूझने के लिए एक पूरी नीति तैयार की जिसके तहत एक अलग विभाग का भी गठन हुआ. उनके अनुभवों ने एक कारगर नीति की बुनियाद रखी जिसका मकसद न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया को ऐसी विपदा के खिलाफ तैयार रखना था.

ओबामा की टीम ने व्हाइट हाउस छोड़ने से पहले राष्ट्रपति ट्रंप की टीम के साथ मिलकर एक काल्पनिक महामारी के खिलाफ अभ्यास भी किया और एक पूरी रणनीति उनके सुपुर्द की. ट्रंप की टीम ने सत्ता संभालते ही उसे दरकिनार कर दिया और पिछले साल ट्रंप के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बॉल्टन ने ओबामा के बनाए ग्लोबल हेल्थ सेक्योरिटी ऐंड बायोडिफेंस विभाग को ही खत्म कर दिया.

कोरोना से जंग में कहां चूका अमेरिका

04:47

This browser does not support the video element.

अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महामारियों और बीमारियों को रोकने के लिए 1946 में बनी संस्था सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (सीडीसी) का बजट (मुद्रास्फीती को ध्यान में रखते हुए) घटता ही चला गया है. ट्रंप प्रशासन के दौरान स्वास्थ्य मंत्रालय ने सीडीसी के लिए डेढ़ अरब डॉलर की मांग की थी, उन्हें उसका आधा बजट दिया गया. अफरातफरी के माहौल में कोरोना वायरस की बड़े स्तर पर टेस्टिंग के लिए सीडीसी ने जो किट बनाया वह पूरी तरह से विफल रहा और उसके बाद जाकर निजी क्षेत्र की कंपनियों के बनाए किटों के इस्तेमाल पर पाबंदियां हटाई गईं. लेकिन इन सबके बीच कीमती समय बर्बाद हो चुका था और वायरस अमेरिका को अपनी चपेट में ले चुका था.

ग्यारह सितंबर के हमलों के बाद जो आकलन हुए थे उनसे स्पष्ट था कि अमेरिकी खुफिया और तमाम एजेंसियों के बीच तालमेल की न सिर्फ कमी थी बल्कि सभी अपने-अपने बंद दरवाजों के बीच काम कर रहे थे. नौकरशाही की परतों के बीच, वे अहम जानकारियां जिनसे उन हमलों को रोका जा सकता था गुम हो गईं. कोरोना वायरस के खिलाफ भी काफी हद तक वही स्थिति नजर आई है. अमेरिकी मीडिया में हर दिन खबरें आ रही हैं कि फलाना वैज्ञानिक ने प्रशासन को आगाह किया था, कि खुफिया एजेंसियों ने अपनी रिपोर्टें पेश की थीं लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी. ट्रंप की कड़ी आलोचना हो रही है कि वे इस खतरे की गंभीरता को नकारते रहे, वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की राय सुनने की बजाय अनुभवहीन सलाहकारों की सुनते रहे और अपने राजनीतिक समीकरणों को तोलते रहे.

महामारियों के जो जानकार थे या फिर जिन्हें पहले की महामारियों का अनुभव था, वे तस्वीर में कहीं थे ही नहीं. उप-राष्ट्रपति माइक पेंस के नेतृ्त्व में जो टास्क फोर्स बना वह अफरातफरी में ही बना और उन्हें भी ट्रंप को खुश रखने और सही नीतियां लागू करने के बीच संतुलन बनाते हुए काम करना पड़ रहा है. वेंटीलेटर्स और आधुनिक उपकरणों की भारी कमी नजर आई है. दुनिया की मदद करने की बजाए अमेरिका कभी दबंगपने से तो कभी दोस्ती से अन्य देशों से मदद मांगता नजर आया है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट की नीति ने अमेरिका के मित्र देशों और दुनिया को पहले से ही आहत कर रखा था, एक विश्वसनीय सहयोगी के रूप में उसकी भूमिका पर सवाल उठ रहे थे . कोरोना वायरस के बाद, अब शायद दुनिया का नेतृत्व करने की अमेरिकी क्षमता पर भी सवाल उठेंगे.

__________________________

हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें