कश्मीर, उत्तराखंड के कई इलाकों में क्यों नहीं गिरी बर्फ
१५ जनवरी २०२४
कश्मीर के गुलमर्ग और उत्तराखंड के औली समेत कई इलाकों में बाकी वर्षों के मुकाबले बहुत कम बर्फ गिरी है. सूखे मौसम की वजह से कई तरह की समस्याएं हो रही हैं. आखिर क्यों हो रहा है ऐसा.
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कश्मीर में इस साल सबसे कड़ाके की सर्दियों के समय में सूखा मौसम काफी लंबा खिंच गया है, जिसकी वजह से कई लोग बीमार पड़ रहे हैं और किसान आने वाले समय में पानी की कमी को लेकर चिंतित हैं.
लगभग महीने भर से दिन का तापमान सामान्य से काफी ऊपर है. मौसम विभाग के मुताबिक कभी-कभी तो यह सामान्य से छह डिग्री सेल्सियस ऊपर चला गया था. लेकिन रातें अभी भी ठंडी हैं.
क्यों नहीं गिरी बर्फ
अधिकारियों का कहना है कि इलाके में दिसंबर में 80 प्रतिशत कम बारिश हुई और जनवरी के पहले सप्ताह में तो बिल्कुल भी बारिश नहीं हुई. राज्य के अधिकांश मैदानी इलाकों में जरा भी बर्फ नहीं गिरी है.
पहाड़ी इलाकों में बर्फ गिरी तो है, लेकिन सामान्य से कम. टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, गुलमर्ग में दिसंबर से अभी तक सिर्फ छह इंच बर्फ गिरी है, जबकि इस समय यहां आम तौर पर डेढ़ से दो फुट तक बर्फ गिरती है. मौसम विभाग के अधिकारियों ने चेतावनी दी है कि सूखा मौसम कम-से-कम एक और हफ्ता जारी रह सकता है.
उत्तराखंड में भी ऐसे ही हालात हैं. विंटर स्पोर्ट्स के लिए लोकप्रिय औली में साल के इस समय तापमान अमूमन एक से तीन डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है, लेकिन इस साल तापमान आठ डिग्री सेल्सियस के आस-पास है.
विशेषज्ञ इन मौसमी बदलावों को जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग से जोड़ कर देख रहे हैं. उन्होंने चेतावनी दी है कि इन स्थितियों के कारण इलाके के जल संसाधनों और कृषि पर असर पड़ सकता है.
मौसम विभाग के कश्मीर कार्यालय के प्रमुख मुख्तार अहमद ने बताया, "हमने बीते कुछ सालों में देखा है कि ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से सर्दियों का मौसम छोटा हो गया है. यह इस जगह के लिए, बल्कि किसी भी जगह के लिए, अच्छा नहीं है क्योंकि इसका पनबिजली उत्पादन और पर्यटन से लेकर कृषि समेत कई क्षेत्रों पर बुरा असर पड़ता है."
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तकलीफ में हैं स्थानीय लोग
अहमद ने यह भी बताया कि समय से बर्फ का गिरना इस इलाके में मौजूद हजारों ग्लेशियरों को रिचार्ज करने के लिए भी बेहद जरूरी है. ये ग्लेशियर कश्मीर की अर्थव्यवस्था के मुख्य स्तंभ कृषि और बागबानी को बनाए रखते हैं.
किसानों और बीमा कंपनियों की एक साथ मदद करती मौसम ऐप
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बीते कुछ सालों में विशेषज्ञों ने ऐसे इलाकों की पर्यावरण संबंधी नजाकत के बारे में चेतावनी दी है, जहां के लोग मोटे तौर पर पानी के ग्लेशियरों पर निर्भर हैं. अपनी खेती के लिए सर्दियों की बारिश पर निर्भर किसान परेशान हैं. पिछले कुछ सालों में कई किसानों ने पानी की कमी के कारण ज्यादा पानी की खपत वाले अपने धान के खेतों को बगीचों में तब्दील कर दिया है.
तापमान में इतने बदलाव की वजह से कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी पैदा हो रही हैं, खास कर सांस लेने में तकलीफ, जो कई लोगों को हो रही है. बार-बार बिजली चले जाने की वजह से इन चुनौतियों का भार और बढ़ गया है.
कभी-कभी 12 से 16 घंटों तक बिजली नहीं रहती है, जिस वजह से विशेष रूप से मरीजों की देखभाल में दिक्कत आ रही है. उद्योगों पर भी असर पड़ा है. पर्यटन विशेष रूप से प्रभावित हुआ है. औली और गुलमर्ग दोनों को ही विंटर स्पोर्ट्स के लिए जाना जाता है, लेकिन इस बार दोनों स्थानों पर बहुत कम बर्फ गिरी है.
12 जनवरी को कश्मीर के कई इलाकों में हजारों मुसलमानों ने खास नमाज अदा की और सूखे मौसम के अंत के लिए दुआ मांगी. श्रीनगर के जामा मस्जिद में बारिश और बर्फ की दुआ मांगने वाले कई लोगों की आंखें भर आईं. स्थानीय निवासी बशीर अहमद ने बताया, "हमें इस सूखे मौसम में परेशानी और बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है. सिर्फ अल्लाह ही हमें इस विपत्ति से निकाल सकता है."
सीके/वीके (एपी)
गिलगित-बल्तिस्तान के पिघलते ग्लेशियरों से बड़ा खतरा
ग्लेशियर, ताजे पानी के सबसे बड़े भंडार हैं. दुनिया में हर चार में से एक इंसान, ऐसे इलाके में रहता है जो पानी के लिए ग्लेशियर और मौसमी बर्फ पर निर्भर है. अकेले एशिया में ही 10 बड़ी नदियां हिमालयी क्षेत्र से निकलती हैं.
तस्वीर: Volodymyr Goinyk/Design Pics/IMAGO
पृथ्वी को ठंडा रखते हैं ग्लेशियर
ग्लेशियर एक सुरक्षा कवच की तरह हैं. ये सूर्य से आने वाली अतिरिक्त गर्मी को वापस अंतरिक्ष में भेज देते हैं. नतीजतन, ये हमारे ग्रह को ठंडा रखने में अहम भूमिका निभाते हैं. ग्लेशियरों की परत एकाएक नहीं जमी. ये सैकड़ों-हजारों सालों की जमापूंजी हैं. लेकिन अब ग्लेशियर नाटकीय रफ्तार से पिघल रहे हैं. तस्वीर: तिब्बत का सापु ग्लेशियर
तस्वीर: zhang zhiwei/Zoonar/picture alliance
कोई भी हिस्सा अछूता नहीं
वैज्ञानिक कहते हैं, जो चीजें आमतौर पर पृथ्वी की जिंदगी के एक लंबे हिस्से के दौरान होती हैं, वो हमारे सामने कुछ ही साल में घट रही हैं. कुछ दशकों में ग्लेशियरों का एक बड़ा हिस्सा गायब हो चुका होगा. शोधकर्ताओं का कहना है कि मध्य और पूर्वी हिमालयी क्षेत्र के ज्यादातर ग्लेशियर शायद अगले एक दशक में मिट जाएंगे. तस्वीर: स्विट्जरलैंड में ग्लेशियरों को पिघलने से बचाने के लिए उन पर इंसूलेटेड कंबल रखा गया.
तस्वीर: Vincent Isore/IMAGO
कुछ देशों पर ज्यादा जोखिम
कुछ हिस्सों पर खतरा ज्यादा तात्कालिक और गंभीर है. ग्लेशियरों के पिघलने और इसके कारण आने वाली बाढ़ से जिन देशों को सबसे ज्यादा जूझना होगा, उनमें पाकिस्तान भी है. काराकोरम पर्वत श्रृंखला में पिघलते ग्लेशियरों के कारण नई झीलें बनने लगी हैं. तस्वीर: गिलगित-बल्तिस्तान की यासिन घाटी. एक ग्लेशियर झील के नजदीक का यह इलाका बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित रहा.
तस्वीर: AKHTAR SOOMRO/REUTERS
डेढ़ करोड़ लोगों पर मंडरा रहा है जोखिम
नेचर कम्युनिकेशंस नाम के जर्नल में छपे शोध के मुताबिक, दुनिया में करीब डेढ़ करोड़ लोगों पर ग्लेशियर झीलों में संभावित बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है. इनमें लगभग 20 लाख लोग पाकिस्तान में हैं. तस्वीर: गिलगित-बल्तिस्तान की हुंजा घाटी का एक गांव. यहां ग्लेशियर से बनी झील में आई बाढ़ के कारण काफी नुकसान हुआ.
तस्वीर: AKHTAR SOOMRO/REUTERS
पस्सु गांव के साथ ऐसा ही हुआ
जलस्तर बढ़ने पर झील का पानी किनारा तोड़कर निकलेगा और ढेर सारा पानी हरहराता हुआ नीचे भागेगा. ऐसे में रास्ते के रिहायशी इलाकों को बड़ा नुकसान हो सकता है. 2008 में पस्सु गांव के साथ ऐसा ही हुआ. तब से यहां रहने वालों की हिफाजत के लिए जल्दी चेतावनी देने की एक व्यवस्था बनाई गई है.
तस्वीर: Akhtar Soomro/REUTERS
ग्लोबल वॉर्मिंग का असर
बढ़ती गर्मी का असर काराकोरम में बहुत गहराई तक दिखता है. यह दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं में है. एवरेस्ट के बाद दूसरी सबसे बड़ी चोटी के2 है, जो इसी काराकोरम श्रृंखला का हिस्सा है. इसके अलावा ब्रॉड पीक, गाशेरब्रुम 1 और गाशेरब्रुम 2, यहीं हैं. ये सभी 26,000 फुट से ज्यादा ऊंची चोटियां हैं. सोचिए, ग्लोबल वॉर्मिंग इन ऊंचे पहाड़ों पर क्या कहर बरसा रही है. तस्वीर: स्विट्जरलैंड का एक ग्लेशियर
तस्वीर: GIAN EHRENZELLER/Keystone/picture alliance
जोखिम का जल्द अंदाजा लगाकर बच सकती हैं जानें
यह अंदाजा लगाना बड़ा मुश्किल है कि झील से पानी कब उफनने लगेगा. फिर भी, एक्सपर्ट्स इसपर काम कर रहे हैं. तारिक जमील, हुंजा घाटी की निगरानी करने वाले जोखिम प्रबंधन केंद्र के प्रमुख हैं. उनकी टीम अर्ली वॉर्निंग सिस्टम विकसित करने पर काम कर रही है. जोखिम की घड़ी में लोगों को सुरक्षित बाहर निकालने की भी योजना बनाई जा रही है.
तस्वीर: Akhtar Soomro/REUTERS
ग्लेशियरों के नुकसान की भरपाई नहीं
ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण अगली सदी, यानी 2100 तक हिमालयी ग्लेशियरों का 75 फीसदी हिस्सा खत्म हो सकता है. जानकारों के मुताबिक, ये ऐसा नुकसान है जिसकी शायद ही कोई भरपाई हो सके. इस इलाके में 200 से ज्यादा ग्लेशियर झीलें खतरनाक मानी जा रही हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, इनसे होने वाले हादसों के कारण बचाव और पुनर्निर्माण के लिए हर साल कम-से-कम 200 अरब डॉलर चाहिए होगा. तस्वीर: तिब्बत का सापु माउंटेन