असम सरकार दुनिया के 25 लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल गोल्डन लंगूर के संरक्षण के लिए निचले असम के काकोइजना संरक्षित वन क्षेत्र को अभयारण्य घोषित करना चाहती है. लेकिन सरकार की पहल का स्थानीय लोग कड़ा विरोध कर रहे हैं.
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दिलचस्प बात यह है कि भूटान की सीमा से लगे इस वन क्षेत्र के संरक्षण में स्थानीय ग्रामीणों ने काफी अहम भूमिका निभाई है. लेकिन अब सरकारी फैसले के विरोध के पीछे उनकी दलील है कि जंगल का कुछ हिस्सा उनके लिए बेहद पवित्र है और वन्यजीव अभयारण्य घोषित होने के बाद उनसे जंगल का अधिकार छिन जाएगा. गोल्डन लंगूर असम के काकोइजना के अलावा पड़ोसी भूटान में ही पाए जाते हैं. असम आंदोलन और उसके बाद बोड़ो उग्रवाद के दौर में जंगल तेजी से कटने की वजह से इस प्रजाति के लंगूरों की आबादी खतरे में पड़ गई थी. उनकी आबादी घट कर सौ से भी कम हो गई थी.
लेकिन गांव वालों और कुछ गैर-सरकारी संगठनों के प्रयास से जहां उस बंजर इलाके में दोबारा जंगल उग आया है वहीं लंगूरों की आबादी भी बढ़ कर पांच सौ के पार पहुंच गई है. लेकिन इससे एक नया खतरा पैदा हो गया है. वह खतरा है इंसानों और जानवरों (लंगूरों) के बीच संघर्ष और सड़क हादसों में इन लंगूरों की बढ़ती मौत. इस पर अंकुश लगाने के लिए असम सरकार ने उस इलाके को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने की पहल की है. वैसे, सरकार ने वर्ष 2011-12 गोल्डन लंगूरों के संरक्षण के लिए असम चिड़ियाघर में गोल्डन लंगूर संरक्षण परियोजना की शुरुआत में की थी.
क्या है गोल्डन लंगूर
पश्चिमी असम और भारत-भूटान की सीमा से सटे इलाकों में पाए जाने वाले गोल्डन लंगूर की खोज औपचारिक तौर पर वर्ष 1953 में एडवर्ड प्रिचर्ड गी ने की थी. इसलिए इसके नाम में गी का नाम भी जुड़ा है. यह भारत की सबसे लुप्तप्राय प्रजातियों में से एक है और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन आफ नेचर (आईयूसीएन) की लाल सूची में शामिल है. भूटान में उनकी आबादी करीब चार हजार है. पूरी दुनिया में गोल्डन लंगूर की आबादी सात हजार के करीब है.
इनके संरक्षण के लिए असम सरकार ने कोई दस साल पहले एक योजना शुरू की थी. 5 जून 2019 को बंगाईगांव जिले के अधिकारियों में असम ने मनरेगा के तहत एक परियोजना शुरू की थी. उसके तहत वन क्षेत्र में अमरूद, आम, ब्लैकबेरी समेत कई फलों के दस हजार से ज्यादा पौधे लगाए गए. इसका मकसद इन लंगूरों को जंगल में पर्याप्त भोजन मुहैया कराना था ताकि भोजन की तलाश में उनको जान से हाथ नहीं धोना पड़े. उससे पहले कई हादसों में दर्जनों ऐसे लंगूरों की मौत हो गई थी.
सरकारी पहल
गोल्डन लंगूरों के संरक्षण की योजना पर काम कर रहे बंगाईगांव जिला प्रशासन ने सरकार से काकोइजना को वन्यजीव अभयारण्य का दर्जा देने की सिफारिश की है. बंगाईगांव के उपायुक्त आदिल खान बताते हैं, "वन मंत्री और प्रधान वन संरक्षक के साथ हाल में एक बैठक में यह प्रस्ताव दिया गया था. सरकार ने इस पर सहमति दे दी है. अब मानसून के बाद इस संरक्षित वन क्षेत्र में रहने वाले पशुओं की तमाम प्रजातियों की गिनती के बाद सरकार को औपचारिक रिपोर्ट भेजी जाएगी."
आदिल खान बताते हैं कि इस इलाके में करीब पांच सौ गोल्डन लंगूर हैं. लेकिन उनकी आबादी तेजी से बढ़ने की वजह से कई समस्याएं पैदा हो रही हैं. एक ओर जहां इंसानों के साथ संघर्ष बढ़ रहा है वहीं जंगल में भोजन का भी संकट पैदा हो रहा है. खान बताते हैं, "अब तक इस प्रजाति के संरक्षण में स्थानीय आदिवासी ग्रामीणों का साथ भी मिलता रहा है. वन्यजीव अभयारण्य का दर्जा मिलने के बाद इलाके में शोध और निवेश के साथ ही पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जा सकेगा."
धरती के इतिहास में खो गए ये जीव
विशालकाय डायनोसोर किसी समय इसी पृथ्वी पर रहते थे. लेकिन अचानक एक दिन उनका कोई नामोनिशान ना रहा. इसी तरह कई अन्य प्राणी भी अचानक खत्म हो गए. इन तस्वीरों में देखें ऐसे ही कुछ विलुप्त प्राणी.
तस्वीर: imago/alimdi
होमो फ्लोरेसिएन्सिस (हॉबिट)
गंभीर दिखने वाला ये इंसान 2003 में इंडोनेशियाई द्वीप पर मिला. यह सिर्फ एक मीटर लंबा था और जेआरआर टल्कियेन की लॉर्ड ऑफ द रिंग्स कहानी में हॉबिट जैसा दिखता था. इसलिए इसे हॉबिट कहा जाता है. शायद यह आधुनिक मनुष्य से अलग प्रजाति का था. धरती पर दोनों ही रहते थे. करीब 15,000 साल पहले हॉबिट प्रजाति ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
तस्वीर: Smithsonian’s Human Origins Program
क्वागा
घोड़े और जेबरा का मिक्स दिखने वाला ये जानवर असल में एक जेबरा है. दक्षिण अफ्रीकी जेबरा की ये एक उप प्रजाति है. लोग इसका शिकार करते और खाने में इसकी टक्कर थी पालतू जानवरों से. क्वागा 1883 में धरती से खत्म हो गया.
तस्वीर: Museum für Naturkunde
ब्रैकियोसॉरस
ये प्राणी धरती से 15 करोड़ साल पहले विलुप्त हो गया था. शाकाहारी ब्रैकियोसॉरस धरती पर रहने वाली सबसे बड़ी प्रजातियों में से एक था. पूरे आकार का डायनोसोर बनने में इसे 10 से 15 साल लगते थे. खूब भूख और बढ़िया मैटाबोलिज्म वाला ये प्राणी 13 मीटर ऊंचा और इससे दुगना बड़ा होता था.
तस्वीर: Museum für Naturkunde
ऊनी मैमथ
आइस एज में जिंदा रहने के लिए वुली मैमथ की खाल बहुत ऊनी होती थी. ये हाथी भी आज के हाथी जितने ही बड़े होते थे. हालांकि ये पांच हजार साल पहले धरती से खत्म हो गए. कारण गर्म होता वातावरण और हमारे पूर्वज शिकारी थे.
तस्वीर: Courtesy of Smithsonian Institution
थाइलैसिन
कुत्ते या भेड़िये जैसा दिखने वाला ये प्राणी तस्मानियाई भेड़िया या तस्मानियाई टाइगर कहलाता है. पेट पर झोली लेकर चलने वाला ये थाइसैलिन हाल के दौर में मांस खाने वाला सबसे बड़ा जानवर था. ऑस्ट्रेलिया का जानवर तस्मानिया के द्वीप पर मिला. यहां आने वाले लोगों ने और उनके कुत्तों ने इसे जीने नहीं दिया. ये 1930 के दशक में खत्म हो गया.
तस्वीर: AMNH/J. Beckett
इंड्रीकोथेरियम
आधुनिक राइनोसॉरस के पड़ पड़ दादा बहुत ही बड़े होते थे. करीब 20 टन के ये बड़े भारी प्राणी शाकाहारी थे. जिंदा रहने के लिए इन्हें बहुत घास, पत्तियों की जरूरत होती. ये मध्य एशिया के जंगलों में राज करते थे. ये मेगा राइनो जंगल खत्म होने के बाद दो करोड़ तीस लाख साल पहले खत्म हो गए.
तस्वीर: AMNH/D. Finnin
साइकोपाइज एलिगांस
समंदर में रहने वाले ये जानवर करीब दो लाख सत्तर हजार साल रहे. लेकिन अचानक 25 करोड़ साल पहले सारे के सारे खत्म भी हो गए. अब ये सिर्फ जीवाश्म ऑक्शन वाली वेबसाइटों पर ही दिखाई देते हैं.
तस्वीर: Museum für Naturkunde
पैसेंजर पिजन
ये है मार्था, पैसेंजर कबूतर. इसे जॉर्ज वॉशिंगटन की पत्नी के नाम पर ये नाम मिला है. सिनसिनाटी जू में कबूतर की ये प्रजाति 1914 में इस कबूतर के साथ खत्म हो गई. इंसान ने इनके रहने के जंगल खत्म कर दिए और फिर इनका भी शिकार किया.
तस्वीर: Donald E. Hurlbert, Smithsonian Institution
एंट्रोडेमस
इस भयानक फोटो के साथ तो इसे जुरैसिक पार्क फिल्म में जगह मिल जानी चाहिए थी लेकिन मिली नहीं. यह पश्चिमी अमेरिका में 15 करोड़ साल पहले दादागिरी करता था. खाद्य श्रृंखला में यह सबसे ऊपर होता था.
तस्वीर: Courtesy of Smithsonian Institution
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जंगल की कटाई
इन लंगूरों की बढ़ती आबादी आसपास के लोगों के खेतों और बागों में भोजन की तलाश में उपद्रव मचाने लगी है. काकोइजना वन क्षेत्र करीब 18 वर्ग किमी इलाके में फैला है और यहां जानवरों की विभिन्न प्रजातियां रहती हैं. फिलहाल इस वन क्षेत्र की रक्षा जंगल के चारों ओर बसे 34 गांवों के लोग करते हैं. वहां मूल रूप से बोड़ो, संथाल, गारो, कोच राजबंशी, बंगाली और नेपाली तबके के लोग रहते हैं.
वर्ष 1966 में बने इस वन क्षेत्र में एक गैर-सरकारी संगठन नेचर्स फोस्टर के सदस्यों ने पहला गोल्डन लंगूर 5 नवंबर 1995 को देखा था. उस समय उनकी आबादी सौ से भी कम थी. संगठन के पदाधिकारी रहे अर्णब बसु बताते हैं, "अस्सी के दशक में होने वाला असम आंदोलन भी इलाके में जंगल के कटने और इन लंगूरों की आबादी में गिरावट का सबसे प्रमुख कारण था. आंदोलन के नाम पर लोगों ने बड़े पैमाने पर पेड़ों की अवैध कटाई की. उस समय इस जंगल का करीब 95 फीसदी हिस्सा बंजर जमीन में बदल गया था."
उसके बाद इन लंगूरों के संरक्षण के लिए अमेरिकी संरक्षण कार्यकर्ता डा. रॉबर्ट हॉर्विच के नेतृत्व में कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने काकोइजना वन क्षेत्र और गोल्डन लंगूरों के संरक्षण के लिए वर्ष 1998 में एक योजना शुरू की थी. इस काम में स्थानीय लोगों को भी शामिल किया गया. उसका बेहतरीन नतीजा सामने आया. अब जहां जंगल की तस्वीर बदलने के साथ ही लंगूरों की आबादी भी बढ़ कर पांच सौ के पार पहुंच गई है.
असम के वन विभाग ने हाल में इलाके के 19.85 वर्ग किमी वन क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने की प्राथमिक अधिसूचना जारी की है. लेकिन गांव वालों ने इसके विरोध में जिला प्रशासन को ज्ञापन दिया है. उसमें कहा गया है कि जंगल के भीतर के कुछ इलाके बेहद पवित्र है और उसकी पवित्रता सुनिश्चित की जानी चाहिए. इलाके के लोग जंगल के संरक्षण की दिशा में बेहतर काम कर रहे हैं.
गांव वालों का कहना है कि वन्यजीव अभयारम्य का दर्जा मिलने के बाद वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के कड़े प्रावधानों के कारण उनके पारंपरिक रीति-रिवाज प्रभावित होंगे और जंगल से उनका अधिकार छिन जाएगा. इसके अलावा उससे संरक्षण की प्रक्रिया भी प्रभावित होगी. स्थानीय लोग वन्यजीव अभयारण्य के बदले इलाके को वन अधिकार अधिनियम के तहत कम्युनिटी फॉरेस्ट रिसोर्सेज में बदलने पर जोर दे रहे हैं. ग्रामीणों को अपनी इस मुहिम में गैर-सरकारी संगठनों का साथ भी मिल रहा है.
वन्यजीव विशेषज्ञ मनोतोष चक्रवर्ती कहते हैं, "कोई भी फैसला करने से पहले जंगल और लंगूरों के संरक्षण में ग्रामीणों की भूमिका को ध्यान में रखा जाना चाहिए. फैसले की प्रक्रिया में उनको भी शामिल करना जरूरी है. साथ ही इस बात का ध्यान रखना होगा कि सरकार के फैसले से स्थानीय आदिवासी समाज की परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े."
जंगली जानवरों की वापसी की दास्तान
लगभग गायब हो चुके वन्य जीवों को वापस ले आने को रीवाइल्डिंग कहा जाता है. पिछले एक दशक में दुनिया के कई हिस्सों में इसका प्रकृति पर लाभकारी असर पड़ा है. जानिए इनमें से कुछ सफल प्रयासों के बारे में.
तस्वीर: Jacob W. Frank/National Park/AP Photo/picture alliance
आम लोगों की शक्ति
रीवाइल्डिंग जंगलों को बढ़ाने का एक सामाजिक और इकोलॉजिकल आंदोलन है. यूरोप में इकोलॉजिस्ट मांग कर रहे हैं कि नष्ट हो चुके जंगली इलाकों के 20 प्रतिशत हिस्से को 2030 तक फिर से हरा भरा किया जाए.
तस्वीर: Nature Picture Library/imago images
यूरोपीय बाइसन की वापसी
बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोपीय बाइसन लगभग गायब हो चुके थे लेकिन अब रीवाइल्डिंग की कोशिशों की वजह से पूरे यूरोप में बाइसन की आबादी लगभग तीन गुना बढ़ चुकी है. अब ना सिर्फ ये स्थानीय जैव-विविधता बढ़ाने का काम कर रहे हैं, बल्कि स्थानीय सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.
तस्वीर: A. Hartl/blickwinkel/picture alliance
बालकन देशों के गिद्ध
बुल्गारिया और ग्रीस के रोडोप पर्वत यूरोप के आखिरी जैव-विविधता स्थलों में से हैं. ये ग्रिफन, मिस्री गिद्धों और काले गिद्धों के प्रजनन का एक महत्वपूर्ण इलाका भी है. पिछले पांच सालों में रीवाइल्डिंग की मदद से इनकी आबादी को स्थिर करने और बढ़ाने में मदद मिली है. ऐसा करने के लिए इनके प्राकृतिक शिकार की उपलब्धता बढ़ाई गई और इनका शिकार और इनके मौत के लिए जिम्मेदार हादसों को भी रोका गया.
तस्वीर: Ben Birchall/empics/picture alliance
बाढ़ रोकने के लिए ऊदबिलाव को वापस लाना
करीब 400 साल पहले इंग्लैंड और वेल्स में ऊदबिलाव लगभग लुप्त ही हो गए थे, लेकिन कुछ सालों पहले यूके सरकार ने फॉरेस्ट ऑफ डीन इलाके में एक गांव को बाढ़ में डूब जाने से रोकने के लिए वहां ऊदबिलावों के एक परिवार को बसा दिया. ऊदबिलावों को ना सिर्फ मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने के लिए जाना जाता है बल्कि उनके बनाए बांध बाढ़ से सुरक्षा भी देते हैं.
तस्वीर: Zoonar/picture alliance
अमेरिका में भेड़ियों के लौटने का असर
अमेरिका के येल्लोस्टोन राष्ट्रीय उद्यान में एल्कों की आबादी बढ़ने से वहां के विल्लो, ऐस्पन और कॉटनवुड पेड़ नष्ट होते जा रहे थे. फिर वहां ग्रे वूल्फ को फिर से बसाया गया और उसके बाद एल्क की आबादी पर नियंत्रण लगा. इसके साथ ही सॉन्गबर्ड जैसे पक्षी और ऊदबिलाव भी लौट आए. शिकार किए जाने के डर से एल्कों ने नदियों के किनारों पर बेफिक्र हो कर चरना कम कर दिया, जिससे नदियों का स्वरूप भी बदल गया.
तस्वीर: All Canada Photos/picture alliance
राजमार्गों पर कीड़ों की मदद
कीड़े जब लंबा सफर करते हैं तो अक्सर आधुनिक खेती के तरीकों की वजह से उन्हें अक्सर रास्ते में ऐसे वन्य जीवों वाले इलाके मिलने में दिक्कत होती है जहां उन्हें खाना मिल सके. पिछले साल, बगलाइफ नाम की संस्था ने यूके में कीड़ों के इन रास्तों का एक नक्शा बनाया और फिर संरक्षण कार्यकर्ताओं ने इन रास्तों पर मधुमक्खियों, तितलियों और दूसरे वन्य जीवों के लिए खाने के अवसर उपलब्ध कराए.
तस्वीर: Photoshot/picture alliance
लाल और हरे मकाओ तोतों को वापस लाना
लाल और हरे रंग के मकाओ तोते अर्जेंटीना से लुप्त हो चुके थे, लेकिन 2015 में एक रीवाइल्डिंग संस्था ने इन्हें आइबेरा राष्ट्रीय उद्यान में फिर से बसाया. तब से उन्होंने बीजों को फैलाने में बेहद जरूरी भूमिका अदा की है और एक मूल्यवान इकोपर्यटन का केंद्र भी बनाया है. इन्होने प्रजाजन भी शुरू कर दिया है. पिछले साल 150 सालों में पहली बार देश में जंगल में इन तोतों द्वारा दिए गए अण्डों में से बच्चे निकले.
तस्वीर: Rewilding Argentina/AFP
रीवाइल्डिंग के साथ समस्या
रीवाइल्डिंग के साथ कुछ विवाद भी जुड़े हुए हैं. जंगली प्रजातियों को वापस लाने के ऐसे परिणाम भी हो सकते हैं जिनके बारे में सोचा ना गया हो, जैसे कुछ आक्रामक प्रजातियों का बढ़ना या किसी बीमारी का फैलना. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि रीवाइल्डिंग एक आर्थिक समस्या भी बन सकती है क्योंकि कई बार जहां रीवाइल्डिंग करनी हो उस जमीन की खेती या निर्माण के लिए भी आवश्यकता होती है.
तस्वीर: Nature Picture Library/imago images
सही जगह को चुनना जरूरी
रीवाइल्डिंग की मुख्य चुनौतियों में से है सही जगह को चुनना. विशेषज्ञों के मुताबिक यह बेहद जरूरी है कि जगह की भौगोलिक स्थिति से लेकर वहां की नदियों, मिट्टी और भूविज्ञान को भी समझा जाए. इससे पता लगेगा कि कहां पौधे उगाए जा सकते हैं, कहां पशु चर सकते हैं, कहां पनाह ले सकते हैं और कहां शिकार कर सकते हैं. ज्यादा विविधता वाले स्थानों में संरक्षण की ज्यादा संभावना होती है. (ऐन-सोफी ब्रैन्डलिन)