उसके कांधे पर अपनी बीवी की नहीं व्यवस्था की लाश है
महेश झा२५ अगस्त २०१६
रोती बेटी के साथ मृत पत्नी की लाश कंधे पर लादकर ले जाते एक व्यक्ति की तस्वीर भारत में हंगामा मचा रही है. मानवीय संवेदना के अलावा यह तस्वीर तीन सवाल पैदा करती है.
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भारतीय समाज में इंसानियत का सवाल, रोग और रोगियों के साथ पेश आने का सवाल और प्रशासनिक अकर्मण्यता का सवाल.
इंसान होने के नाते दूसरे इंसान की संवेदनाओं के प्रति हमारी संवेदना इंसानियत है. लेकिन तेजी से बदलते भारत में भावनाएं पीछे छूटती जा रही हैं, समाज अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटता दिख रहा है और दूसरों की तकलीफ कुछ समय के लिए उत्सुकता भर ही पैदा करती है. जब तक दूसरों की तकलीफ परेशान नहीं करेगी तब तक उसका सामूहिक समाधान खोजने की जरूरत भी पैदा नहीं होगी. भारत में नागरिक सुविधाएं बढ़ाने और उन्हें हर नागरिक के लिए उपलब्ध कराने के बदले लोगों पर छोड़ दिया गया है कि वे अपनी जरूरतें कैसे पूरी करें. अगर पैसा है तो जरूरतें पूरी होंगी, अगर नहीं तो इस बात की भी चिंता नहीं है कि उससे समाज को कितना नुकसान होगा.
उड़ीसा का कालाहांडी देश के सबसे गरीब जिलों में से एक है. वहीं के सरकारी अस्पताल में दीना मांझी की पत्नी की मौत टीबी से हुई. और पत्नी की लाश ले जाते मांझी की तस्वीर ठीक उस दिन छपी है जिस दिन विज्ञान पत्रिका लैंसेट यह खबर छापी है कि भारत में टीबी की संख्या उससे कहीं ज्यादा है जितने का अनुमान है. टीबी संक्रामक रोग है और टीबी की वजह से मरे इंसान की लाश को इस तरह ले जाने देना अस्पतालकर्मियों की भारी गलती है. अस्पताल में लाए जाने के साथ ही इलाज और मृत्यु की स्थिति में लाश के सही तरीके से अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी अस्पताल की होनी चाहिए.
संवेदनहीनता की एक और मिसाल, इन तस्वीरों में देखिए
पागलखाने का ये अनदेखा चेहरा
यहां देखिए 1994 में बने बांग्लादेश के मशहूर पबना मेंटल हॉस्पिटल के पागलखाने में मानसिक रोगियों की स्थिति को दर्शाती कुछ दुर्लभ तस्वीरें.
तस्वीर: imago/UIG
पहला मानसिक अस्पताल
पबना मानसिक अस्पताल की शुरुआत एक घर में 1957 में हुई. 1959 में इसे एक अस्पताल में स्थानांतरित किया गया था. 60 बिस्तरों वाले अस्पताल से अब यह 500 बिस्तरों वाला बन चुका है.
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मानसिक रोग
बांग्लादेश में करीब डेढ़ लाख वयस्क मानसिक रोग से ग्रस्त बताए जाते हैं, मोटे तौर पर भारत में ऐसे रोगियों की संख्या कुल आबादी के 5 प्रतिशत के आसपास यानि 5 करोड़ होने का अनुमान है. इनमें से केवल आधे को ही किसी तरह का उपचार मिल पाता है.
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गलत धारणाएं
हर तरह के मानसिक रोगियों को 'पागल' नहीं कहा जा सकता. लेकिन ऐसी नकारात्मक राय के कारण ही कई लोग इस बारे में बात करने या इलाज के लिए जाने से हिचकिचाते हैं. इसके अलावा कम पढ़ी लिखी जनता में मानसिक रोगियों के बारे में कई भ्रांतियां भी हैं.
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एम वार्ड
पबना मानसिक अस्पताल के पुरुष वार्ड यानि एम वार्ड की तस्वीर. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे कई विकासशील देशों में मानसिक बीमारी को गंभीरता से ना लेना एक बड़ा संकट है.
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परिवार का साथ नहीं
मानसिक रोगियों को उनके परिवार और समाज से अलग नहीं किया जाना बल्कि उनके उपचार में परिवार वालों के साथ संपर्क बनाए रखना चाहिए. सच्चाई ये है कि एक बार पागलखाने में डालने के बाद कई लोग मरीज का हालचाल पूछने भी नहीं पहुंचते.
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हिंसक प्रवृत्ति
कुछ रोगी जो बहुत हिंसक प्रवृत्ति के होते हैं उन्हें अलग वार्ड में रखा जाता है. तस्वीर में देखें 1994 में ली गई हिंसक गतिविधियों में संलग्न लोगों की तस्वीर.
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बेचैन रोगी
कई रोगी लगातार नाचते गाते रहते हैं तो कुछ खुद को फिल्मी सितारे या कोई और मशहूर हस्ती मानने लगते हैं. रोगियों में बेचैनी दिखाई देना आम बात है.
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तीसरा मुद्दा प्रशासनिक कमजोरियों का है. भारत के जिलों को देखें तो साफ होता जा रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर चुने जाने वाले प्रशासनिक अधिकारी जिलों को विकास की राह पर नेतृत्व देने की हालत में नहीं हैं. स्थानीय प्रशासनिक ईकाइयों का काम नागरिकों के लिए मूलभूत सुविधाओं का इंतजाम करने के अलावा उनकी शिक्षा और रोजगार की संभावनाएं बनाना भी है. भारतीय प्रशासनिक अधिकारी सिर्फ शासन कर रहे हैं, नेतृत्व नहीं दे रहे हैं. इस कमजोरी को राज्यों के स्तर पर क्वॉलिटी वाले प्रशासनिक कॉलेज खोलकर दूर किया जा सकता है, जहां के छात्र तीन साल में न सिर्फ यह सीखकर निकलेंगे कि पंचायतों, नगरपालिकाओं और जिला बोर्डों का संचालन कैसे किया जाए, बल्कि जहां स्थानीय स्तर पर यह रिसर्च और विश्लेषण भी हो पाएगा कि विकास की संरचनाएं किस तरह सुधारी जा सकती हैं और सभी नागरिकों को किस तरह बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं.
आंख मूंदने से समस्याएं खत्म नहीं होंगी. समस्याओं के समाधान के लिए ढांचा बनाने की तो जरूरत है ही, लोगों के लिए सम्मानजनक कमाई देने वाला रोजगार भी जरूरी है. और ये ऐसी चुनौती है जिसका सामना मिलजुलकर ही किया जा सकता है. एक व्यापक बहस अच्छी शुरुआत होगी.
इलाज करने वाले ही हो रहे हैं टीबी का शिकार, देखिए कैसे
इलाज करने वाले ही टीबी के शिकार
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में टीबी के सबसे अधिक मामले भारत में ही पाए जाते हैं. देश भर में 26 लाख लोगों के शरीर में टीबी का बैक्टीरिया मौजूद है. यहां तक कि इलाज करने वाले भी खुद ही इसका शिकार हैं.
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दो हफ्ते से ज्यादा खांसी?
ट्यूबरकुलोसिस या फिर क्षय रोग का बैक्टीरिया खांसी जुकाम से फैलता है. सरकार सालों से अभियान चला रही है कि दो हफ्ते से ज्यादा खांसी टीबी हो सकती है. लेकिन इसके बावजूद देश में टीबी को लेकर संजीदगी नजर नहीं आती.
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नर्स की मौत
कुछ वक्त पहले मुंबई के सेवरी अस्पताल की नर्स की मौत सुर्खियों में रही. यह अस्पताल खास तौर से टीबी की रोकथाम और इलाज के लिए बनाया गया है. लेकिन अस्पताल की हालत देख कर आए लोग बताते हैं कि इलाज की जरूरत सबसे पहले खुद अस्पताल को ही है.
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हर रोज छह मौतें
अस्पताल के संचालक राजेंद्र नानावरे ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि अस्पताल में हर रोज टीबी के चलते औसतन छह मौतें होती हैं. इतना ही नहीं, अस्पताल के कई कर्मचारी भी संक्रमित हैं.
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अस्पताल की हालत
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच सालों में कम से कम 12 कर्मचारियों की टीबी से जान जा चुकी है. हालांकि असल आंकड़ों के बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं है. अस्पताल की हालत यह है कि वॉर्ड में बिल्लियां घूमती नजर आती हैं.
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सफाई कर्मचारियों का क्या?
1200 बिस्तर की क्षमता वाले सेवरी अस्पताल के बारे में स्थानीय यूनियन अध्यक्ष प्रकाश देवदास का कहना है, "बहुत से क्लास 4 कर्मचारी, सफाई कर्मचारी बीमार होने के बाद नौकरी छोड़ कर चले जाते हैं. हम नहीं जानते कि वे जिंदा हैं या नहीं. कोई उनकी खबर नहीं लेता."
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आंकड़ों की राजनीति
फाउंडेशन फॉर मेडिकल रिसर्च की निदेशक नर्गिस मिस्त्री बताती हैं कि संस्था की रिपोर्ट के अनुसार 2007 से 2011 के बीच अस्पताल में 65 कर्मचारियों की मौत हुई. इनमें से ज्यादातर रसोइये थे. हालांकि इस रिपोर्ट को अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है.
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मास्क कहां है?
भारत के अधिकतर सरकारी अस्पतालों का मंजर एक सा ही होता है. सफाई की कमी, नियमों की अनदेखी. सेवरी का भी वही हाल है. रॉयटर्स की टीम जब इस अस्पताल में पहुंची तो पाया कि डॉक्टर, नर्स और मरीज, सभी बिना मास्क के ही घूम रहे हैं.
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जिम्मेदारी किसकी
सेवरी की तरह भारत के कई अस्पतालों को फेसलिफ्ट की जरूरत है. केवल टीबी के लक्षणों के बारे में लोगों को जागरूक करना ही काफी नहीं है. क्योंकि बीमारी को समझ कर लोग अस्पताल तक तो पहुंच जाते हैं, लेकिन जब अस्पताल ही मौत का कारण बन जाए, तो उसकी जिम्मेदारी आखिर किसकी होगी?