दुनिया भर में लोग लंबे हो रहे हैं लेकिन एक नए शोध के मुताबिक भारत में आम लोगों की औसत लंबाई कम होती जा रही है. इस स्थिति को लेकर विशेषज्ञ काफी चिंतित हैं.
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वैज्ञानिक इस बात को लेकर हैरान हैं कि जब दुनियाभर में लोगों का कद बढ़ रहा है तो भारत में इसका उलट क्यों हो रहा है. शोधकर्ताओं का कहना है कि वैश्विक प्रवृत्ति के विपरीत भारत में आम नागरिकों की औसत लंबाई में गिरावट चिंता का विषय है.
दिल्ली के प्रमुख शैक्षणिक संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ ने सरकार के वार्षिक राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण पर आधारित एक शोध किया है. इस शोध रिपोर्ट के परिणामों के मुताबिक भारत में वयस्कों की औसत लंबाई चिंताजनक रूप से गिर रही है.
कद घट रहा है
अध्ययन में 15 से 25 वर्ष की आयु के बीच और 26 से 50 वर्ष की आयु के बीच के पुरुषों और महिलाओं की औसत लंबाई और उनकी सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण किया गया. ओपन एक्सेस साइंस जर्नल पीएलओएस वन में यह शोध छपा है.
रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1998-99 की तुलना में 2005-06 और 2015-16 के बीच वयस्क पुरुषों और महिलाओं की लंबाई में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है. कद में सबसे ज्यादा गिरावट गरीब और आदिवासी महिलाओं में देखी गई.
अमीर और गरीब में कद का फर्क
इस रिपोर्ट के मुताबिक पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की औसत लंबाई तेजी से घट रही है. इससे सबसे ज्यादा प्रभावित वो महिलाएं हैं जो एससी या एसटी समुदाय से आती हैं. अनुसूचित जनजाति समुदाय से आने वाली एक पांच साल की लड़की की लंबाई में सामान्य वर्ग की लड़की के मुकाबले 2 सेंटीमीटर की कमी आई है. जबकि अमीर घरों से आने वाली महिलाओं की औसत लंबाई में बढ़ोतरी हुई है.
पुरुषों के मामले में किसी भी वर्ग के लिए स्थिति अच्छी नहीं है, इसका मतलब पुरुष चाहे अमीर हो या गरीब या पिछड़ी जाति के, उनकी औसत लंबाई में करीब एक सेंटीमीटर की कमी आई है.
भारतीय लोगों की औसत लंबाई में गिरावट वैश्विक प्रवृत्ति के खिलाफ है. शोध में शामिल शोधकर्ताओं ने लिखा, "भारत में वयस्कों की औसत लंबाई में गिरावट दुनिया भर में औसत लंबाई में वृद्धि के कारण चिंता का विषय है और इसके कारणों की तुरंत पहचान करने की जरूरत है. साथ ही भारतीय आबादी के विभिन्न आनुवंशिक समूहों के लिए लंबाई के विभिन्न मानकों के तर्कों पर और विचार करने की आवश्यकता है."
देश के लोगों में औसत लंबाई में यह कमी साल 2005 के बाद से आई है जबकि साल 1989 के बाद से देश के लोगों का कद बढ़ रहा था.
भारत में महिलाओं की औसत लंबाई पांच फीट एक इंच और पुरुषों की औसत लंबाई पांच फीट चार इंच है. हालांकि कुछ शोधकर्ता इसे दावे से असहमत नजर आते हैं.
देखें: नवजात शिशु की सेहत का ऐसे रखें ध्यान
नवजात शिशु की सेहत का ऐसे रखें ध्यान
बच्चे के जन्म के बाद पहला साल बहुत अहम होता है. इस दौरान बच्चे की नींद और पोषण दोनों पर ध्यान देना जरूरी है. जानिए, शिशु की सेहत के लिए कुछ जरूरी टिप्स.
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वजन पर दें ध्यान
जन्म के समय जिन बच्चों का वजन चार किलोग्राम या उससे ज्यादा होता है, वह बड़े हो कर मोटापे का शिकार हो सकते हैं. इसीलिए इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि गर्भवती महिलाएं अत्यधिक खानपान से दूर रहें, कसरत करती रहें और उन्हें डायबिटीज न हो.
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मां से जुड़ाव
बच्चे मां का स्पर्श, उसकी खुशबू को पहचानते हैं. अक्सर कहा जाता हैं कि मां बच्चे की रुलाई पिता से बेहतर पहचानती है. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं, मां और बाप दोनों अपने बच्चे की रोने की आवाज यकीन के साथ और समान रूप से पहचान सकते हैं.
हर बच्चे की नींद का पैटर्न अलग होता है, लेकिन कुल मिला कर नवजात शिशुओं को करीब 16 घंटे की नींद की जरूरत होती है. जैसे जैसे उम्र बढ़ती है यह कम होती जाती है.
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मां का दूध
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जन्म के बाद छह महीने तक तो बच्चे को केवल मां का दूध ही पिलाना चाहिए. थाईलैंड में सिर्फ पांच फीसदी महिलाएं बच्चों को अपना दूध पिलाती हैं. भारत अभी भी इससे बचा है. यूनिसेफ ने कहा कि इस मामले में दुनिया को भारत से सीख लेनी चाहिए.
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हाई टेक बच्चे
इन दिनों बहुत कम उम्र के बच्चों के लिए भी कंप्यूटर और स्मार्टफोन पर ऐप उपलब्ध हैं, जो बच्चों के विकास में मददगार हैं. पहले दो सालों में दिमाग का आकार तीन गुना बढ़ जाता है, जो कि चीजों को छूने, फेंकने, पकड़ने, काटने, सूंघने, देखने और सुनने जैसी गतिविधियों से मुमकिन होता है.
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मां का तनाव
गर्भावस्था के समय कई बातों का सीधा असर पैदा होने वाले बच्चे और उसके आगे के जीवन पर पड़ता है. यदि गर्भवती महिला तनाव में है तो बच्चे तक पोषक तत्व नहीं पहुंचते. इसी तरह जन्म के बाद भी मां का अपनी सेहत पर ध्यान देना जरूरी है.
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दवाओं से दूर
छोटे बच्चों को अक्सर दवाओं से दूर रखने की कोशिश की जाती है. खास तौर से एंटीबायोटिक का इस्तेमाल बच्चों के लिए हानिकारक होता है. इनसे शरीर के फायदेमंद जीवाणु मर जाते हैं. मोटापा, दमा और पेट की बीमारियां बढ़ती हैं.
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स्वस्थ जीवन
बच्चों के लिए दुनिया बेहतर बन रही है. पिछले एक दशक में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में 50 फीसदी तक की गिरावट आई है.
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खान पान का भी असर
शोधकर्ताओं का कहना है कि विभिन्न कारक वयस्क पुरुषों और महिलाओं के शरीर की लंबाई को प्रभावित करते हैं. आनुवंशिक कारक किसी व्यक्ति की लंबाई के 60-80 प्रतिशत में एक भूमिका निभाते हैं, पर्यावरणीय और सामाजिक कारण भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि यह चिंता का विषय है कि भारत में लोगों की औसत लंबाई में गिरावट गैर-आनुवंशिक कारकों के कारण भी है. इनमें जीवनशैली, पोषण, सामाजिक और आर्थिक कारक शामिल हैं.
कद की कद्र क्यों
भारतीय समाज में लंबे लड़कों और लड़कियों को छोटे कद वालों के मुकाबले बेहतर माना जाता है. लंबे कद वालों को समाज में ज्यादा प्रभावशाली माना जाता है और भारतीय समाज में मां-बाप भी चाहते हैं कि उनका बच्चा दूसरे बच्चों के मुकाबले लंबाई में ज्यादा हो.
विशेषज्ञों का मानना है कि किसी समाज में रहने वाले लोगों की लंबाई बढ़ने या घटने में कई कारक शामिल होते हैं और किसी एक अध्ययन के आधार पर अंतिम निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा. विशेषज्ञों मानते हैं कि इस मुद्दे पर आगे और शोध की जरूरत है. साथ ही उनका कहना है कि समाज के हर वर्ग को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने के अलावा, जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने वाली बुनियादी सामाजिक और पर्यावरणीय सेवाएं देने पर ध्यान देना अधिक महत्वपूर्ण है.
मीट नहीं, दाल खाइए
भारत में तरह तरह की दालें खाई जाती हैं लेकिन पश्चिमी देशों में इनको लेकर कुछ खास जानकारी नहीं है. धीरे धीरे यह बदल रहा है. दालों को अब सुपर फूड कहा जाने लगा है. अब 10 फरवरी को विश्व दाल दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है.
दालें पोषण से भरपूर होती हैं. इनमें भारी मात्रा में प्रोटीन होता है. साथ ही ये डायबिटीज और कॉलेस्ट्रॉल को काबू में रखने में भी लाभकारी होती हैं. इसके अलावा वजन घटाने के लिए की जाने वाली तरह तरह की डाइट में भी दाल खाने की नसीहत दी जाती है.
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पोषण की दुकान
इतना ही नहीं, दालों में आयरन, पोटैशियम, मैग्नीशियम, जिंक और फाइबर भी अच्छी मात्रा में होता है. ये ग्लूटन फ्री होती हैं यानी इनसे किसी तरह की एलर्जी भी नहीं होती.
कुछ अफ्रीकी देशों जैसे कांगो और रवांडा तथा भारत में खेती के दौरान ही कुछ दालों में अतिरिक्त आयरन डाला जाता है ताकि आबादी में कुपोषण से निपटा जा सके. इन्हें खाने से आयरन की दिन भर की लगभग आधी जरूरत पूरी हो जाती है.
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पर्यावरण के लिए भी
प्रोटीन का सबसे अच्छा स्रोत मीट होता है. लेकिन उसे खाने से पर्यावरण को भारी नुकसान होता है. इसके विपरीत दालें मीट जैसा ही पोषण देती हैं और धरती की सेहत का भी ख्याल रखती हैं.
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पानी की किल्लत का जवाब
जहां आधा किलो मीट में सात हजार लीटर पानी खर्च होता है, वहीं आधा किलो दाल पर मात्र 160 लीटर. दूध की तुलना में भी दाल में प्रोटीन ज्यादा होता है और संसाधन कम खर्च होते हैं.
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कहीं भी उग सकती हैं
खूब गर्म और खूब सर्द माहौल में भी दालें आराम से उग जाती हैं. इन्हें केमिकल फर्टिलाइजर की भी ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती.
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सदियों से
इंसान हजारों सालों से दालें खा रहे हैं. तुर्की में पुरातत्वविदों को सात से आठ हजार ईसा पूर्व के दालों के निशान मिले हैं. भारत के अलावा प्राचीन मिस्र और रोमन साम्राज्य में भी इनका इस्तेमाल होता था.
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दाल की रंगोली
मसूर, उड़त और मूंग की दालों से मिल कर बनाई गई तिरंगे वाली यह रंगोली किसान आंदोलन के समर्थन में बनाई गई है. वैसे, पारंपरिक रूप से रंगोली बनाने के लिए दाल और चावल का इस्तेमाल किया जाता रहा है.