करीब 40 साल की मेहनत के बाद मलेरिया को रोकने वाली वैक्सीन बनी है. लेकिन जब तक यह तकनीक भारत नहीं पहुंचेगी, तब तक मलेरिया लाखों जानें लेता रहेगा.
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केन्या के शहर किसुमु में रहने वाली रेबेका आधियाम्बो के दो बच्चे हैं. लेकिन उन्हें हर वक्त अपने चार साल के बड़े बेटे की चिंता होती है. उसे आज भी मलेरिया के अटैक पड़ते हैं. कभी अचानक कंपकपी के साथ उसका बदन तपने लगता है और फिर बेदम होने तक पसीना बहने लगता है. रेबेका का छोटा बेटा डेढ़ साल का है और वह पूरी तरह स्वस्थ्य है.
रेबेका कहती हैं, "बड़े बेटे को वैक्सीन नहीं लगी थी और वह अक्सर बीमार रहता है. छोटे को वैक्सीन लग चुकी है और वह बीमार नहीं पड़ता है." छोटे बेटे को एक पायलट प्रोग्राम के तहत मलेरिया से लड़ने वाला मोसक्विरिक्स टीका लग चुका है.
रेबेका उन चुनिंदा मांओं में से एक हैं जिनके एक बच्चे को मलेरिया का टीका लग चुका है. अफ्रीकी महाद्वीप में आज भी ऐसे लाखों बच्चे हैं जो मलेरिया की वजह से मारे जा रहे हैं. दुनिया भर में यह बीमारी हर साल 6 लाख लोगों की जान लेती है. इनमें से 95 फीसदी मौतें अफ्रीकी देशों में होती हैं, हर मिनट में एक बच्चे की मौत.
अफ्रीका में हर मिनट एक बच्चे की जान लेता है मलेरियातस्वीर: Jerome Delay/AP Photo/picture alliance
मलेरिया से लड़ने वाला टीका
ब्रिटिश कंपनी जीएसके के पास मलेरिया की रोकथाम करने वाली वैक्सीन का फॉर्मूला है. लेकिन कंपनी के पास इतने संसाधन नहीं है कि वह बड़े पैमाने पर टीकों का उत्पादन कर सके. समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), जीएसके के कर्मचारियों, वैज्ञानिकों और गैर लाभकारी संगठनों से बातचीत की.
ब्रिटिश दवा कंपनी वादा कर रही है कि 2028 से वह हर साल डेढ़ करोड़ वैक्सीन बनाएगी. लेकिन 2019 के पायलट प्रोग्राम की समीक्षा करने के बाद डब्ल्यूएचओ को लगता है कि ये संख्या पर्याप्त नहीं होगी. इस बात की गुंजाइश बहुत कम है कि 2026 से पहले लाखों टीके बाजार में आ सकेंगे.
दवा निमार्ता कंपनी जीएसके का दफ्तरतस्वीर: Leon Neal/Getty Images
जीएसके के प्रवक्ता ने रॉयटर्स को बताया कि फंड की कमी के कारण मोसक्विरिक्स नाम की वैक्सीन का उत्पादन प्रभावित हो रहा है. कंपनी के चीफ ग्लोबल हेल्थ अफसर थोमस ब्रॉयर कहते हैं, "अगले 5 से 10 साल में मांग, सप्लाई के मौजूदा अनुमान को पीछे छोड़ देगी."
हालांकि यह वैक्सीन मलेरिया को रोकने में करीब 30 फीसदी ही सफल है. 30 परसेंट इफेक्टिवनेस का यह डाटा बड़े क्लीनिकल ट्रायलों के बाद सामने आया है. कुछ अधिकारियों को लगता है कि ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में टेस्ट की जा रही एक और वैक्सीन बेहतर साबित होगी, लेकिन फिलहाल उसे बाजार में आने में कई साल लगेंगे.
गरीबों की बीमारी
घाना के सरकारी स्वास्थ्य विशेषज्ञ कवामे अमपोंसा-आचियान कहते हैं, "किसी नई वैक्सीन के आने से पहले मोसक्विरिक्स भी कई बेशकीमती जानें बचा सकता है." घाना में वैक्सीनेशन के पायलट प्रोग्राम की समीक्षा करने वाले अमपोंसा-आचियान के मुताबिक, "हमारा इंतजार जितना लंबा होगा, उतने ही ज्यादा बच्चे बेवजह मारे जाएंगे."
मुनाफे के कारण लटका मलेरिया वैक्सीन का उत्पादनतस्वीर: Jerome Delay/AP Photo/picture alliance
विकसित देशों में मलेरिया वैक्सीन की कोई मांग नहीं है. दवा कंपनियों को लगता है कि अफ्रीका में बहुत ही सस्ते दाम में दवा बेचने से उन्हें मुनाफा नहीं होगा. गैर लाभकारी संस्थान आरबीएम पार्टनरशिप टू एंड मलेरिया की चीफ एक्जीक्यूटिव कोरीने कारेमा कहती हैं, "यह गरीबों की बीमारी है और इसीलिए बाजार के लिहाज से इसमें बहुत दिलचस्पी नहीं है."
भारत बायोटेक से उम्मीदें
डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि मलेरिया से लड़ने के लिए हर साल वैक्सीन की 10 करोड़ डोज चाहिए. एक बच्चे को चार बार टीका लगाया जाना है. इस लिहाज से 2.5 करोड़ बच्चों का टीकाकरण हो सकेगा. डब्ल्यूएचओ के अधिकारियों के मुताबिक मोसक्विरिक्स की कम सप्लाई होने पर हर साल 40,000 से 80,000 बच्चों की जान ही बचाई जा सकेगी.
दुनिया की सबसे बड़ी दवा निर्माता कंपनियों में शामिल है भारत बायोटेकतस्वीर: Pavlo Gonchar/Zuma/picture alliance
मोसक्विरिक्स बनाने वाली कंपनी जीएसके खुद भी मानती है कि 2024 से पहले पायलट प्रोजेक्ट के बाहर वैक्सीन सप्लाई करने की क्षमता उसके पास नहीं है. कंपनी ने अब तक अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए 84 करोड़ डॉलर खर्च किए हैं. कंपनी का कहना है कि वह वैक्सीन की लागत में आने वाले खर्च में अधिक से अधिक 5 फीसदी कीमत और जोड़ेगी. दाम इससे ज्यादा नहीं बढ़ाए जाएंगे. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक इसके बावजूद एक वैक्सीन की कीमत कम से कम पांच डॉलर होगी, जो अफ्रीका के लिए बहुत ज्यादा है.
2028 के बाद मोसक्विरिक्स के अहम तत्वों का उत्पादन भारतीय कंपनी भारत बायोटेक करेगी. जीएसके के अधिकारी ब्रॉयर को उम्मीद है कि भारत बायोटेक के साथ हुए करार से उत्पादन बढ़ाने में काफी मदद मिलेगी. भारत बायोटेक को अभी अपने मैन्युफैक्चरिंग प्लांट की रूपरेखा बनानी है.
ओएसजे/एमजे (रॉयटर्स)
मलेरिया: मौत के लिए एक ही डंक काफी
एक अनुमान के मुताबिक हर साल दुनिया में 10 लाख लोगों की मौत मलेरिया के कारण होती है. कंपकपी के साथ तेज बुखार मलेरिया के संकेत हैं. इस बीमारी के कारण बच्चों की मौत की संभावना सबसे अधिक होती है.
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मच्छर से मलेरिया
अफ्रीका का सबसे खतरनाक जीव सिर्फ 6 मिलीमीटर लंबा है. इसे मादा एनोफेलीज मच्छर के नाम से जाना जाता है. यह संक्रामक रोग मलेरिया के लिए जिम्मेदार है. एक अनुमान के मुताबिक हर साल दुनिया में 10 लाख लोगों की मौत मलेरिया के कारण होती है. कंपकपी के साथ तेज बुखार मलेरिया के संकेत हैं. इस बीमारी के कारण बच्चों की मौत की संभावना सबसे अधिक होती है.
मलेरिया पीड़ित को अगर मच्छर काट ले तो वह मलेरिया के विषाणु को औरों तक फैला देता है. शोधकर्ताओं ने इस मच्छर में विषाणु को प्रोटीन से चिह्नित किया है जो हरे रंग में चमकता है. लार ग्रंथि में जाने से पहले मच्छर की आंत में पैरासाइट प्रजनन करता है.
मलेरिया पैरासाइट का जैविक नाम प्लाज्मोडियम है. बीमारी की शोध के लिए वैज्ञानिकों ने एनोफेलीज मच्छरों को संक्रमित किया और उसके बाद पैरासाइट को लार ग्रंथि से अलग किया. इसमें पैरासाइट का संक्रामक रूप जमा है. इस तस्वीर में दाहिनी तरफ मच्छर है और बीच में है हटाई गई लार ग्रंथि.
तस्वीर: Cenix BioScience GmbH
विषाणु चक्र
मलेरिया पैरासाइट घुमावदार होते हैं, वो एक दायरे में घुमते हैं. यहां शोधकर्ताओं ने उन्हें तरल पदार्थ के साथ शीशे के टुकड़े पर रखा. पैरासाइट को यहां पीले रंग से चिह्नित किया गया है. और जिस पथ पर घूमते हैं उसे नीले रंग से पहचाना जा सकता है. वो तेजी से चलते हैं. एक पूरा चक्कर लगाने के लिए सिर्फ 30 सेकेंड लेते हैं. बाधा पहुंचने पर वे अपने घुमावदार पथ से हट जाते हैं. सीधी रेखा पर भी चल सकते हैं.
इंसान के शरीर में दाखिल होने के बाद विषाणु मनुष्य के लीवर में कुछ दिनों के लिए ठहर जाता है. इस दौरान मरीज को पता नहीं चलता. प्लाज्मोडियम मरीज की लाल रक्त कणिकाओं को तेजी से प्रभावित करता है, और लीवर में इस परजीवी की संख्या तेजी से बढ़ती चली जाती है. लीवर में यह मेरोजोइटस का रूप लेता है, जिसके बाद रक्त कोशिकाओं पर हमला शुरू हो जाता है और इंसान बीमार महसूस करने लगता है.
तस्वीर: AP
शरीर में बढ़ता पैरासाइट
रक्त कोशिका में दाखिल होने के बाद पैरासाइट एक से तीन दिन के भीतर बढ़ने लगता है. इसके बाद वे लाल रक्त कणिका या लीवर कोशिका में प्रवेश कर जाता है. यहां परजीवी का विखंडन होता है. परजीवियों की संख्या बढ़ने पर कोशिका फट जाती है. नतीजतन इंसान को ठंड के साथ बुखार आने लगता है. माइक्रोस्कोप में इसे आसानी के साथ देखा जा सकता है. बैंगनी रंग का यह रोगाणु अलग नजर आ रहा है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Klett GmbH
मच्छरदानी में मौत
शोधकर्ताओं ने एक ऐसी मच्छरदानी बनाई है जिसमें जाल में कीटनाशक लगे हुए हैं. मच्छरदानी के संपर्क में आते ही मच्छर मर जाते हैं.
तस्वीर: Edlena Barros
दवा का छिड़काव
जब मलेरिया का प्रकोप हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो उसके लिए दूसरे उपाए किए जाते हैं. मुंबई की इस तस्वीर में मच्छरों को मारने के लिए दवाओं का छिड़काव किया जा रहा है. डीडीटी कीटनाशक का इस्तेमाल प्रभावशाली होता है. हालांकि यह स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए खतरनाक होता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
रैपिड टेस्ट
खून की एक बूंद से किया गया रैपिड टेस्ट मिनटों में बता सकता है कि मरीज को मलेरिया है या नहीं. यहां डॉक्टर विदआउट बॉर्डर की एक कार्यकर्ता, अफ्रीकी देश माली में लड़के पर रैपिड टेस्ट कर रही हैं. इस लड़के में मलेरिया की पुष्टि हुई. उपचार के दो दिन बाद वह स्वस्थ हो गया. हालांकि रैपिड टेस्ट हमेशा भरोसेमंद नहीं होते.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
दवा बेअसर
दवाइयों की मदद से रक्त में मौजूद विषाणु को खत्म या फिर बढ़ने से रोका जा सकता है. हालांकि दवाओं का असर पैरासाइट पर कम होता जा रहा है. लंबे समय से इस्तेमाल की जा रही मलेरिया की दवा क्लोरोक्वीन अब कुछ इलाकों में प्रभावशाली नहीं है. नई दवाओं की खोज मलेरिया की प्रतिरोधक क्षमता की समस्या से निपटने का एक रास्ता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
कब आएगा टीका
मलेरिया के लिए अब तक कोई टीका नहीं है. शोधकर्ता टीका बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं. रिपोर्टों के मुताबिक इस मामले में सफलता जल्द मिल सकती है.