1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
कानून और न्यायभारत

राजद्रोह कानून: सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से मांगा जवाब

आमिर अंसारी
२८ अप्रैल २०२२

भारत में राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है. राजद्रोह कानून के तहत सजा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना तक हो सकती है. कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट पांच मई को सुनवाई करेगा.

तस्वीर: DW/M.Krishnan

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि वह राजद्रोह कानून (124ए) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर पांच मई को अंतिम सुनवाई करेगा. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच ने याचिकाओं पर सुनवाई के लिए पांच मई की तारीख तय की है. चीफ जस्टिस ने कहा कि इस मामले की सुनवाई में अब कोई स्थगन नहीं होगा. इस पर अंतिम सुनवाई पिछले साल जुलाई में हुई थी.

कानून की वैधता को चुनौती

चीफ जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने केंद्र द्वारा जवाब न दायर करने पर सुनवाई टालने के आग्रह पर यह निर्देश दिया. कोर्ट ने कहा है कि अब किसी भी वजह से सुनवाई टाली नहीं जाएगी. कोर्ट ने कहा अगली सुनवाई (5 मई) को दिनभर होगी.

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को इस सप्ताह के अंत तक राजद्रोह कानून को खत्म करने की याचिकाकर्ताओं की मांग के संबंध में अपना पक्ष रखने के लिए कहा है. केंद्र सरकार की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बेंच को कहा कि याचिकाओं पर केंद्र सरकार का जवाब लगभग तैयार है. उन्होंने जवाब दाखिल करने के लिए दो दिन का समय मांगा.

राजद्रोह कानून की वैधता को चुनौती देने वालीं रिटायर्ड मेजर जनरल एसजी वोम्बतकेरे और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा दायर दो रिट याचिकाओं पर सुनवाई हो रही है. इसी मामले पर पत्रकार पेट्रीसिया मुखिम और अनुराधा भसीन द्वारा याचिका भी लंबित है.

याचिकाकर्ताओं का कोर्ट से कहना है कि इस कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है.

मीडिया का मुंह बंद करने का हथियार बनता राजद्रोह कानून

क्या है राजद्रोह कानून?

राजद्रोह भारत की दंड दंहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत एक अपराध है. इसे अंग्रेज अपने शासन के दौरान 1870 में लाए थे. फिर 1898 और 1937 में इसमें संशोधन किए गए. आजादी के बाद 1948, 1950 और 1951 में इसमें और संशोधन किए गए. दशकों पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और पंजाब हाई कोर्ट ने अलग-अलग फैसलों में इसे असंवैधानिक बताया था, लेकिन 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने ''केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य' नाम के फैसले में इसे वापस ला दिया. हालांकि, इसी फैसले में अदालत ने कहा कि इस कानून का उपयोग तभी किया जा सकता है जब "हिंसा के लिए भड़काना" साबित हो.

1962 में दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हर नागरिक को सरकार के कामकाज पर टिप्पणी करने और आलोचना करने का अधिकार है. आलोचना का दायरा तय है और उस दायरे में आलोचना करना राजद्रोह नहीं है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि आलोचना ऐसी हो जिसमें सार्वजनिक व्यवस्था खराब करने या हिंसा फैलाने की कोशिश न हो. साल 2021 से ही सुप्रीम कोर्ट में इस कानून की वैधता को चुनौती देने वाली चार याचिका लंबित है.

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें
डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें