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एक पवन चक्की लगाने में 7 साल का वक्त, आखिर क्या हैं दिक्कतें

६ जनवरी २०२३

तेल और गैस की बढ़ती कीमतों के बीच वैकल्पिक ऊर्जा की मांग बढ़ रही है. लेकिन पवनचक्कियां लगाने का लाइसेंस लेने में कई बार तो सालों लग जाते हैं.आखिर पवन ऊर्जा उद्योग को जर्मनी में इतनी मुश्किलें क्यों झेलनी पड़ रही है?

Windräder in deer Ostsee
तस्वीर: Jens Büttner/dpa/picture alliance

जर्मनी फोसिल इंधन का इस्तेमाल खत्म कर अक्षय ऊर्जा की ओर बढ़ना चाहता है. यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद तेल और गैस की कीमत तेजी से बढ़ी है और अक्षय ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल करने की जरूरत और बढ़ गई है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि जर्मनी में अक्षय ऊर्जा स्रोतों का आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है और बिजली बनाई जा सकती है. यहां तो एक पवनचक्की लगाने की इजाजत लेने में कई साल लग जाते हैं और पुर्जों का उत्पादन भी लगातार महंगा हो रहा है.

ऊर्जा की मांग बीते दशकों में बेतहाशा बढ़ी है. बढ़ी मांग को पूरा करने के लिए सौर ऊर्जा के अलावा पवन ऊर्जा भी मददगार हो सकती है. लेकिन जर्मनी में यह पूरा उद्योग परेशानियां झेल रहा है. वैसे तो जर्मनी पवन ऊर्जा जैसे अक्षय स्रोतों को पूरी तरह से अपनाना चाहता है, लेकिन यह प्रक्रिया धीमी है. तो आखिर दिक्कत कहां आ रही है.

अक्षय ऊर्जा उद्योग की परेशानियां

जर्मनी के उत्तर में समुद्र है, जहां तेज समुद्री हवाएं बहती हैं. यह बिजली बनाने का अच्छा स्रोत है. समुद्र तट पर स्थित उत्तरी राज्य मेक्लेनबुर्ग-वेस्ट पोमेरेनिया में ईको एनर्जी सिस्टम्स की जैकलीन वुंश ऐसे प्रोजेक्ट की मैनेजर हैं, जिसका जमीन पर अब तक कोई अता-पता नहीं. कंपनी 2015 से यहां दो विंड फार्म लगाने की कोशिश में है. इसके लिए कम से कम दर्जन भर विभागों से इजाजत लेनी होती है. वुंश का दावा है कि उनकी कंपनी को दो विंड टर्बाइनें लगाने में करीब 7 साल का वक्त लग गया. वे कहती हैं, "ऐसा हमेशा नहीं होता लेकिन बहुत से प्रोजेक्ट्स में 5 से 7 साल लग जाते हैं."

पवनचक्कियों से इन्हें बिजली नहींं, बस कबाड़ा मिल रहा है

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उद्योग के नजरिये से देखें तो पता चलता है कि समस्याएं प्रशासनिक और कल पुर्जों दोनों के स्तर पर हैं. यह यकीन करना मुश्किल है, लेकिन हालिया वर्षों में जर्मनी के पवन ऊर्जा क्षेत्र में निवेश नहीं बढ़ा है. इससे उलट, यह घटकर आधा हो गया है. जर्मनी में 2017 में करीब 7.3 अरब यूरो का निवेश पवन ऊर्जा क्षेत्र में हुआ. पांच साल बाद यह घटकर 2.8 अरब यूरो रह गया है.

तो क्या पवन चक्की लगाना घाटे का सौदा?

जर्मनी की पर्यावरण नीतियों के हिसाब से अक्षय ऊर्जा ही भविष्य है. ऐसे में यह घाटे का सौदा तो नहीं है. लेकिन इस प्रक्रिया में दुश्वारियां इतनी हैं कि निवेश करने वाले भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में पैसा लगाना बेहतर समझ रहे हैं. जर्मनी में हर पवन चक्की के लिए अलग से अप्लाई करना होता है. कम से कम कागज पर तो. जैकलीन वुंश बताती हैं, "ऐसे आवेदन हजार पन्ने लंबे हो सकते हैं. आपको, सुरक्षा पर डेटा से लेकर कौन सा ऑयल-ग्रीस इस्तेमाल होगा, साइट का मैप, शोर, छांव और कंपन के प्रभाव से लेकर गणनाओं तक, सब कुछ बताना होता है. इसके बिना आवेदन स्वीकार होना संभव नहीं."

जर्मनी में पवनचक्की तगाने में बहुत सारी बाधाएंतस्वीर: Rolf Poetsch/chromorange/picture alliance

जर्मनी की संघीय सरकार आवेदन प्रक्रिया को तेज करने की कोशिश कर रही है. इसके अलावा राज्य सरकारों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह 2032 तक विंड पार्क बनाने के लिए चार गुना ज्यादा जगह आबंटित करें.

कंपनियां कर रहीं भारत-चीन का रुख

पवन ऊर्जा के मामले में चीन इस वक्त सबसे आगे है. फिर अमेरिका का नंबर आता है. भारत में भी स्थितियां बेहतर दिख रही हैं. ऐसे में पवन ऊर्जा के उपकरण बनाने वाली कई कंपनियां भारत और चीन का रुख कर रही हैं. यहां उत्पादन लागत कम है. उपकरणों के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता यूरोप के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. कई कंपनियां अब यूरोप से अपने प्लांट समेट रही हैं. जैसे कि नोरडेक्स ने किया. कंपनी ने उत्तरी जर्मन शहर रॉस्टॉक में अपना प्लांट बंद कर दिया. इसके रोटर ब्लेड अब भारत में बनाए जा रहे हैं. जर्मनी के लिए इसका मतलब सिर्फ नौकरियों में कटौती नहीं, बल्कि विशेषज्ञता और संसाधनों का जाना भी है.

रॉस्टॉक शहर की मेटल ट्रेड यूनियन के श्टेफान शाड कहते हैं, "यह जर्मनी के पवन ऊर्जा को बढ़ावा देने की योजना को बहुत बड़ा धक्का है. यह जर्मनी में आखिरी रोटर ब्लेड प्लांट था. हमने खुद के पांव पर कुल्हाड़ी मारी है. अब हम भारत, ब्राजील और चीन पर निर्भर हैं."

श्टेफान शाड  की शिकायत है कि यदि वैश्विक योजनाओं को देखें तो साफ हो जाता है कि जर्मनी के लक्ष्य हासिलनहीं किए जा सकते. वे कहते हैं, "अगर जर्मनी की 2 प्रतिशत जमीन पवन चक्कियों के लिए उपलब्ध करवा भी दी जाए, तब भी रोटर ब्लेड कहां से लाएंगे? आपको उन्हें खरीदना होगा और ऐसे बात नहीं बनेगी."

ग्राहकों पर बढ़ेगा बोझ

जैकलीन वुंश की कंपनी ईनो एनर्जी सिस्टम्स अब भी जर्मनी में उत्पादन कर रही है. यह पारिवारिक कंपनी पवन चक्कियों के निर्माण से लेकर उसे लगाने तक का पूरा काम करती है और बाद में देखरेख भी. खाली पड़े बाजार और महामारी के दौरान सरकार से मिली आर्थिक मदद के चलते कंपनी किसी तरह चलती रही. लेकिन बढ़ती लागत से पवन चक्कियां महंगी होंगी, जिससे या तो कंपनियों को सस्ते विकल्प ढूंढने होंगे या फिर जर्मनी में काम बंद करना होगा.

ईनो एनर्जी सिस्टम्स के प्रमुख कार्स्टेन पोर्म कहते हैं, "6 मेगावाट की एक आम पवन चक्की का खर्च 2021 में 50 लाख यूरो था, अब यह बढ़कर 60 या 63 लाख यूरो के करीब हो गया है." कुल मिलाकर बात यह है कि जर्मनी पवन ऊर्जा के मामले में पिछड़ रहा है. सरकार काम को गति देने की कोशिश कर रही है. लेकिन कम निवेश, कंपनियों के पलायन, ऊंचे दामों और पुर्जों की कमी के बीच जर्मनी की अक्षय ऊर्जा की तरफ की यात्रा खड़ी चढ़ाई जैसी मुश्किल नजर आती है.

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