पश्चिम बंगाल के सुंदरबन इलाके में मौजूद मैंग्रोव जंगल को बचाने और उसका विस्तार करने की कोशिशें की जा रही हैं. मैंग्रोव के पेड़ लगाने के लिए महिलाएं आगे आ रही हैं.
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पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24-परगना जिले में सुंदरबन अपनी जैविक विविधता के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है. हाल के सालों में यहां आने वाले चक्रवात ने क्षेत्र पर काफी कहर बरपाया है. समय के साथ भारत में शक्तिशाली चक्रवात तूफानों की आने की श्रृंखला बढ़ी है. सुंदरबन में दुनिया का सबसे बडा मैंग्रोव जंगल है और अब महिलाओं ने जलवायु परिवर्तन की मार को कम करने के लिए मैंग्रोव के पौधे लगाने का बीड़ा उठाया है.
दक्षिण 24-परगना जिले में बांग्लादेश की सीमा से लगा सुंदरबन रॉयल बंगाल टाइगर और दुर्लभ डॉल्फिनों के लिए मशहूर है. यही कारण है कि इसका नाम यूनेस्को की विश्व धरोहरों की सूची में भी शामिल है. लेकिन जंगल को अतीत में अवैध कटाई का सामना करना पड़ा है और वह नियमित रूप से तीव्र मानसूनी तूफानों से प्रभावित हुआ है.
जलवायु परिवर्तन का असर
जलवायु परिवर्तन से सुंदरबन इलाके पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर से मुकाबले के लिए मैंग्रोव जंगल को बचाना बेहद जरूरी हो गया है. इसीलिए पिछले हफ्ते मैंग्रोव के पौधे लगाने की मुहिम की शुरुआत हुई. तट के पास युवा महिलाओं का दल सिर पर मैंग्रोव के पौधे की टोकरी लिए हुए निकल पड़ा है. महिलाएं खाली इलाकों में मैंग्रोव के पौधे लगा रही हैं.
इस मुहिम में शामिल शिवानी अधिकारी कहती हैं, "यह तूफान और चक्रवात की संभावना वाला क्षेत्र है. इसलिए तटबंधों की रक्षा के लिए हम सभी महिलाएं पौधे लगा रही हैं."
आफत से बचाएगा मैंग्रोव
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक मैंग्रोव के पेड़ समुद्र तटों को कटाव और चरम मौसम की घटनाओं से बचाते हैं. वे प्रदूषकों को छानकर पानी की गुणवत्ता में सुधार करते हैं और कई समुद्री जीवों के लिए नर्सरी के रूप में काम करते हैं. यही नहीं मैंग्रोव हर साल लाखों टन कार्बन को अपनी पत्तियों, तनों, जड़ों और मिट्टी में सोख कर जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद कर सकते हैं.
मैंग्रोव के जंगल तटीय समुदायों को उन चक्रवातों से बचाने में भी मदद करते हैं जो उस क्षेत्र से होकर गुजरते हैं. परियोजना स्थल के पास रहने वाले गौतम नश्कर कहते हैं, "अगर इन तटबंधों की रक्षा की जाती है तो हमारा गांव बच जाएगा. अगर हमारा गांव बच जाएगा तो हम बच जाएंगे." वे कहते हैं, "यह हमारी आशा और हमारी इच्छा है."
मैवग्रोव बचेंगे तो ही बचेगा सुंदरबन
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एक स्थानीय गैर-लाभकारी संस्था और पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा समर्थित इस परियोजना का लक्ष्य लगभग 10,000 मैंग्रोव पौधे लगाना है. पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के तट नियमित रूप से चक्रवातों से प्रभावित हैं, जिनकी वजह से बीते सालों में हजारों लोगों की मौत हो चुकी है.
हाल के सालों में तूफानों की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हुई है जिसका कारण जलवायु परिवर्तन को ठहराया जाता है लेकिन तेजी से निकासी, बेहतर पूर्वानुमान और अधिक आश्रयों के कारण मौतों में कमी आई है.
एए/सीके (एएफपी)
कई दुर्लभ प्रजातियों का बसेरा है भीतरकनिका राष्ट्रीय उद्यान
ओडिशा के भीतरकनिका राष्ट्रीय उद्यान करीब 145 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. इसके मटमैले मैंग्रोव वनों में एल्बिनो मगरमच्छ और समुद्री कछुए जैसे दुर्लभ जंतु और चिड़ियों की सैकड़ों प्रजातियां रहती हैं.
तस्वीर: Murali Krishnan
जहां धरती और समंदर मिलते हैं
भीतरकनिका उद्यान के चारों ओर भीतरकनिका अभयारण्य फैला हुआ है, जो बंगाल की खाड़ी में ब्राम्हणी और बैतरणी नदियों के मुहाने पर स्थित है. अभयारण्य अपने आप में 672 वर्ग किलोमीटर के मैंग्रोव वनों और जलमयभूमि के एक इलाके में फैला हुआ है.
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हरियाला का ठिकाना
भीतरकनिका में तीन नदियां समुद्र में मिलती हैं, जिसकी वजह से वहां मटमैली खाड़ियों और मैंग्रोव की एक भूल-भुलैया सी बन जाती है. उद्यान में पक्षियों की 215 से भी ज्यादा प्रजातियां रहती हैं.
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संभल कर रखें कदम
उद्यान के पानी में और उसके आस-पास केंद्रपाड़ा जिले के दूसरे इलाकों में खारे पानी के मगरमच्छों की जनसंख्या बढ़ गई है. वन विभाग के अधिकारियों ने पिछले साल हुई सरीसर्पों की वार्षिक गणना में 1,757 मगरमच्छ पाए थे.
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भीमकाय मगरमच्छों का घर
उद्यान के कर्मियों ने कम से कम 12 एल्बिनो मगरमच्छ और चार भीमकाय मगरमच्छों की भी गिनती की थी. यह बड़े मगरमच्छ 20 फुट से भी ज्यादा लंबे हैं और इनमें से कुछ 70 सालों से भी ज्यादा तक जिंदा रह सकते हैं.
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प्रकृति के प्रहरी
भीतरकनिका के मंडलीय वन्य अधिकारी बिकाश रंजन दाश ने बताया, "हमने उद्यान के अंदर और उसके आस-पास के इलाकों में सभी नदियों और उनकी खाड़ियों में रहने वाले मगरमच्छों की गिनती करने के लिए 22 टीमें बनाई थीं." यहां तट पर ओलिव रिडले समुद्री कछुओं के अंडों की सुरक्षा के लिए कड़ा इंतजाम भी है.
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नन्हे कछुओं की पहली यात्रा
भीतरकनिका अभयारण्य ओडिशा के पूर्वी तट पर स्थित है जो पूरी दुनिया में ओलिव रिडले समुद्री कछुओं के अंडा देने का सबसे बड़ा स्थल है. मेक्सिको और कोस्टा रिका के तटों का नंबर इसके बाद आता है. 45 से 65 दिनों के अंदर अंडों से नन्हे कछुए निकलते हैं और तब यह तट धीरे-धीरे रेंग कर समुद्र की तरफ अपनी पहली यात्रा तय करते हुए नन्हे कछुओं से भर जाता है.
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रेत में शुरू होती है जिंदगी
ओलिव रिडले कछुए समंदर में ही प्रजनन करते हैं. मादाएं प्रजनन के पूरे मौसम तक शुक्राणुओं को अपने अंदर रख सकती हैं. इससे उन्हें एक से लेकर तीन बार तक अंडे देने में मदद मिलती है. सभी समुद्री कछुओं की तरह वो भी अपने अंडे उसी तट पर देती हैं जहां वो खुद जन्मी थीं. वो हर घोसले में 50 से 200 तक अंडे देती हैं और उसके बाद समंदर में वापस लौट जाती हैं. तस्करी की वजह से इन कछुओं पर खतरा बढ़ता जा रहा है.
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पानी की ओर चले
पिछले साल कोविड तालाबंदी की वजह से जब यहां बहुत कम पर्यटक आए तब 8,00,000 से भी ज्यादा ओलिव रिडले कछुए ओडिशा के तटों पर आए थे. इस तस्वीर में एक कछुआ वापस समंदर की तरफ लौट रहा है.