अगर किसी दफ्तर में बॉस का व्यवहार भेदभावपूर्ण है तो वह उनके लिए भी खतरनाक है जिनके पक्ष में वह भेदभाव करते हैं.
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जब लोग भेदभाव करने वाले बॉस के साथ काम करते हैं तो वे उनकी काम करने की लगन कम हो जाती है. ऐसा सिर्फ भेदभाव सहने वाले कर्मचारी के मामले में ही नहीं, उन कर्मचारियों के मामले में भी सच है, जिनके पक्ष में दूसरों के साथ भेदभाव किया जाता है.
नेचर ह्यूमन बिहेवियर नामक जर्नल में छपे एक नये शोध पत्र में ओक्लाहोमा स्टेट यूनिवर्सिटी के निकोलस हाइजरमान और साउथ कैरोलाइना यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर ब्रेंट सिंपसन ने यह बात कही है.
कैसे हुआ शोध
इन दोनों शोधार्थियों ने लगभग 1,200 लोगों पर यह शोध किया है. उन्होंने लोगों के साथ कई तरह के प्रयोग किये. द कन्वर्सेशन पत्रिका में अपने लेख में प्रोफेसर सिंपसन लिखते हैं, "कुछ प्रयोगों में हमने प्रतिभागियों को अलग-अलग काम दिये जैसे कि उन्हें एक सूची में कुछ अंक खोजने थे और बताना था कि कितनी बार अंक 3 आया. उन्होंने जितनी खोजें पूरी कीं, उनकी कोशिशों को उतनी अधिक रेटिंग दी गई. ये लोग छोटे-छोटे समूहों में या फिर जोड़ों में काम कर रहे थे. उन्हें कहा गया ज्यादा से ज्यादा अंक खोजने के आधार पर बॉस उनमें से किसी एक को बोनस देगा."
इन वजहों से नौकरी छोड़ते हैं लोग
नौकरी से निकाला जाना किसी भी कर्मचारी के लिए जितना दर्दनाक होता है, उतना ही बड़ा धक्का किसी भी कंपनी को एक अच्छे कर्मचारी के नौकरी छोड़ कर चले जाने से भी लगता है. जानिए किन वजहों से लोग छोड़ते हैं नौकरी.
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तरक्की
इंसान की फितरत में है आगे बढ़ना. वह एक जगह रुका नहीं रह सकता. अगर कंपनी अपने कर्मचारियों को ऐसा अहसास करा रही है कि अगले 10-20 सालों में भी उनकी कोई तरक्की नहीं होगी और वे वही काम करते रहेंगे, तो ऐसे में कर्मचारियों को रोक कर रखना मुश्किल है.
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तनाव
थोड़ा बहुत तनाव हर नौकरी में होता है लेकिन अगर कंपनी जरूरत से ज्यादा ही काम लेने लगे, तो कर्मचारियों के लिए यह निराशा भरा होता. ज्यादातर काम दिया भी उन्हीं को जाता है, जो ज्यादा और बेहतर काम करने के लायक होते हैं. ऐसे में उन्हें लगने लगता है कि उनका शोषण हो रहा है.
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चुनौतियां
काम में चुनौतियां हों, तो काम करने में ज्यादा मजा आता है. चुनौतियों को पूरा कर जीत का अहसास होता है, जो किसी भी नौकरी में बने रहने के लिए जरूरी है. ऐसा ना होने पर नौकरी ऊबाऊ हो जाती है.
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पहचान
जब कोई कंपनी अपने फायदे को कर्मचारियों से ज्यादा अहमियत देने लगती है, तो अच्छे कर्मचारियों के लिए यह बर्दाश्त के बाहर होता है. खास कर अगर बॉस आपको काम का क्रेडिट भी ना दे. ऐसे में लोग नौकरी छोड़ना ही बेहतर समझते हैं.
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हाइरार्की
हर कंपनी में एक स्ट्रक्चर का होना जरूरी है लेकिन जिन जगहों पर बहुत ही बड़ी हाइरार्की होती है, वहां काम करना सबसे ज्यादा मुश्किल होता है. ऐसे में कर्मचारी अपने सपनों को पूरा होता नहीं देखते और वहां जाना पसंद करते हैं, जहां उनके आइडिया सुने जाएंगे.
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उसके बाद शोधार्थियों ने भेदभाव पूर्ण स्थिति पैदा करने के लिए प्रतिभागियों को बताया कि कर्मचारियों को लाल और नीले, दो समूहों में बांटा गया है. हालांकि सभी प्रतिभागियों को नीले समूह में रखा गया और एक तिहाई लोगों को बताया कि नीले समूह के कर्मचारियों के साथ बॉस भेदभाव करता है. अन्य एक तिहाई को बताया गया कि उन्हें बॉस पसंद करता है. अन्यों को किसी तरह की सूचना नहीं दी गई.
भेदभाव का असर
प्रोफेसर सिंपसन कहते हैं, "हमने पाया कि बॉस द्वारा भेदभाव करने वाले हैं, उन्होंने तीसरे समूह के मुकाबले कम अंक खोजे. कम अंक खोजने वालों में वे दोनों समूह थे जिनके पक्ष में या खिलाफ भेदभाव होता था.”
लड़की को खेलने का भी हक नहीं!
एपी के एक फोटोग्राफर ने कुछ अफगान महिलाओं की तस्वीरें खीचीं. इनमें ये महिलाएं अपने पसंदीदा खेल के साजो-सामान के साथ पोज कर रही हैं. ये तस्वीरें उनसे छीने जा रहे सपनों की ऐसी झलकियां हैं, जिन्हें देखकर दिल टूट जाता है.
तस्वीर: Ebrahim Noroozi/AP Photo/picture alliance
महिलाओं को आसानी से नहीं मिले मौके
तालिबान के आने से पहले भी अफगानिस्तान के एक बड़े रूढ़िवादी तबके को महिलाओं की खेलों में हिस्सेदारी से दिक्कत थी. वो मानते थे कि ये लड़कियों-महिलाओं की "लाज-शरम" और घर की चारदीवारी में सीमित रहने की कथित परंपरागत भूमिका के मुताबिक नहीं है. लेकिन फिर भी अफगानिस्तान की पूर्व सरकार ने महिलाओं की खेल में हिस्सेदारी को बढ़ावा दिया.
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तालिबान के आने से सब बदल गया
स्कूलों-कॉलेजों में क्लब और लीग शुरू हुए. कई खेलों में महिलाओं की टीम राष्ट्रीय स्तर पर खेलने लगी, लेकिन तालिबान के आने से सब बदल गया. 20 साल की सरीना मिक्स्ड मार्शल आर्टिस्ट थीं. सरीना अगस्त 2021 का एक दिन याद करती हैं, जब वो काबुल स्पोर्ट्स हॉल में एक स्थानीय टूर्नमेंट में खेल रही थीं. तभी खबर फैली कि तालिबानी लड़ाके काबुल के बाहरी हिस्से तक पहुंच गए हैं. सारी लड़कियां और महिलाएं डरकर भाग गईं.
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खेलना अपराध बना दिया गया
वो आखिरी मुकाबला था, जब सरीना ने खेल सकी थीं. बाद के दिनों में उन्होंने लड़कियों को चुपचाप मार्शल आर्ट सिखाने की कोशिश की, लेकिन तालिबान ने उन्हें पकड़ लिया. हिरासत में उन्हें बेहद जलील किया गया. फिर कभी ना खेलने के वादे पर रिहाई मिली. सरीना जैसी ही कहानी 20 साल की नूरा की भी है. नूरा को फुटबॉल खेलने में बड़ा मजा आता था. वो मां की मार खातीं, पड़ोसियों की फब्तियां सुनतीं, मगर खेलना नहीं छोड़ा.
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खेलने की बात भी राज रखनी पड़ी
जब तालिबान ने अफगान महिलाओं का खेलना बैन किया, तो नूरा मजबूर हो गईं. नूरा ने छुटपन में गली के लड़कों संग फुटबॉल खेलना शुरू किया था. लड़कियों की एक स्थानीय टीम में शामिल हो गईं. उन्होंने ये बात अपने पिता के सिवा बाकी सब से छिपाकर रखी. 13 साल का होने पर वो अपनी हमउम्र लड़कियों में सबसे अच्छी फुटबॉल खिलाड़ी चुनी गईं. नूरा की तस्वीर के साथ ये खबर टीवी पर भी दिखाई गई.
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जूते और यूनिफॉर्म जला दिए गए
टीवी पर तस्वीर दिखाया जाना नूरा के लिए बड़ी मुसीबत बन गया. उनकी मां ने गुस्से में उन्हें पीटा-धमकाया. फिर भी नूरा ने चुपके से खेलना जारी रखा. उनकी टीम नेशनल चैंपियनशिप जीती और ये खबर टीवी पर आई. फिर नूरा की पिटाई हुई. मां ने उनके जूते और यूनिफॉर्म को जला दिया. नूरा छिपकर अवॉर्ड लेने गईं. वहां स्टेज पर अवॉर्ड लेते हुए जब लोगों ने तालियां बजाईं, तो नूरा पड़ीं.
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मगर ये खुशी के आंसू नहीं थे
नूरा बताती हैं, "बस मैं जानती थी कि उस पल मैं अकेलेपन और जिंदगी की मुश्किलों के चलते रो रही थी." विरोध के चलते नूरा को फुटबॉल तो छोड़ना पड़ा, लेकिन उन्होंने खेलना नहीं छोड़ा. वो बॉक्सिंग करने लगीं. जिस रोज तालिबान काबुल में घुसा, नूरा की कोच ने उनकी मां को फोन करके कहा कि नूरा को एयरपोर्ट जाना चाहिए. मगर नूरा की मां ने कोच का मेसेज बेटी को नहीं बताया क्योंकि वो नहीं चाहती थीं कि नूरा बाहर जाए.
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नूरा ने अपनी जान लेने की कोशिश की
जब तक नूरा को कोच का भेजा संदेश मिला, बहुत देर हो चुकी थी. निराश नूरा ने कलाई की नसें काट लीं. नूरा को अस्पताल ले जाया गया. वो बच तो गईं, लेकिन उनके सपने मार डाले गए. नूरा बताती हैं कि बस लड़कियों के खेलने पर पाबंदी नहीं लगी, बल्कि जो पहले कभी खेला करती थीं, उन्हें धमकाया और परेशान भी किया जा रहा है. अकेले में, घर के भीतर भी ना खेलने के लिए कहा जाता है.
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जारी है दमन
तालिबान ने नूरा और उनके परिवार को भी धमकाया. नूरा कहती हैं, "जब से तालिबान आया, मुझे लगता है मैं मर चुकी हूं." ऐसी आपबीती बस नूरा की नहीं है. खेल से जुड़ी रहीं कई अफगान लड़कियों और महिलाओं ने एपी को बताया कि तालिबान ने उन्हें डराया-धमकाया है. कुछ के घर आकर, तो कुछ को फोन करके चेतावनी दी गई. निशाना बनाए जाने के डर से ही इन महिलाओं ने तस्वीर खिंचवाते हुए भी खुद को बुर्के में छुपाया.
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शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि भेदभाव के कारण लोगों की उत्पादकता कम हो जाती है और बोनस जैसे रिवॉर्ड से भी उन्हें फर्क नहीं पड़ता. प्रोफेसर सिंपसन कहते हैं कि आम समझ भी यही कहती है कि अगर आपको पता है कि आपका बॉस के व्यवहार निष्पक्ष नहीं है और वह आपके पक्ष में है तो आप मानकर चलोगे कि काम करें या ना, आपको फायदा होगा ही. वैसी स्थिति में आपकी उत्पादकता घट जाएगी.
यह बात तो स्थापित है कि कार्यस्थलों में जिन लोगों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार होता है उनकी आय और आगे बढ़ने के मौके कम हैं. लेकिन ताजा अध्ययन यह कहता है कि इस तरह का व्यवहार सभी कर्मचारियों की उत्पादकता कम करता है, यहां तक कि उनकी भी जिन्हें भेदभावपूर्ण व्यवहार का फायदा हो रहा है. इसलिए शोधकर्ता निष्कर्ष देते हैं कि पक्षपात किसी भी कार्यस्थल के लिए खतरनाक है.
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हर जगह है भेदभाव
इसी साल ऑस्ट्रेलिया में हुए एक अध्ययन में 91 फीसदी लोगों ने कहा था कि उन्होंने कार्यस्थलों पर किसी ना किसी तरह का भेदभाव या पक्षपात झेला है. यह भेदभाव लिंग, जाति, नस्ल, रंग, उम्र या वजन आदि किसी भी वजह से हो सकता है.
महिलाओं को तो सबसे ज्यादा भेदभाव झेलने वाला समूह माना जाता है. पिछले साल आई ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के ग्रामीण इलाकों में भेदभाव के कारण ही महिलाओं में गैरबराबरी है, जबकि शहरी क्षेत्रों में गैरबराबरी की यह दर 98 फीसदी है. लैंगिक भेदभाव के कारण भारत में पुरुष कर्मचारी महिलाओं से ढाई गुना ज्यादा कमाते हैं.
इसके अलावा अपने शोधपत्र में शोधकर्ता एक और बात को समझाते हैं कि पक्षपात का कर्मचारियों की क्षमता और उत्पादकता पर असर समय के साथ-साथ बुरा होता जाता है. प्रोफेसर सिंपसन कहते हैं कि हमने पाया कि जिन लोगों के साथ भेदभाव होता है, उनकी उत्पादकता में सबसे ज्यादा कमी आती है.
वह कहते हैं, "हमें संदेह है कि इससे एक दुष्चक्र शुरू हो जाता है. जब किसी के साथ भेदभाव होता है तो उसकी लगन कम होती है. नतीजतन बॉस उसे सुस्त या निकम्मे कर्मचारी के रूप में देखता है और उसे कम लाभ मिलते हैं. इस तरह उस कर्मचारी के प्रति भेदभाव की वजहें और मजबूत हो जाती हैं.”