स्विट्जरलैंड स्थित लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर (एलएचसी) तीन साल के अंतराल के बाद फिर शुरू हो गया है. वैज्ञानिक उम्मीद कर रहे हैं कि इंसान द्वारा बनाई गई दुनिया की सबसे बड़ी मशीन ब्रह्मांड के रहस्य सुलझाने में मदद करेगी.
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शुक्रवार को यूरोपीय ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूकलियर रिसर्च (सर्न) का स्विट्जरलैंड स्थित एलएचसी दोबारा शुरू किया गया. तीन साल तक 27 किलोमीटर लंबी इस मशीन में सुधार किए गए जिसके बाद यह मशीन पार्टिकल्स के अध्ययन के लिए तैयार है.
सर्न ने कहा कि कोलाइडर में पार्टिकल्स को दोबारा छोड़ दिया गया है. दिसंबर 2018 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है. सर्न के मुताबिक एलएचसी को अपनी पूरी गति हासिल करने में छह से आठ हफ्ते लगसकते हैं. सर्न ने एक बयान जारी कर बताया, "एक बार शुरू होने के बाद एलएचसी की ऊर्जा का स्तर नए रिकॉर्ड पर पहुंच जाएगा जिसका इस्तेमाल फिजिक्स में रिसर्च के लिए किया जाएगा.”
कैसी है सर्न की प्रयोगशाला
दुनिया के सबसे बड़े कण कोलाइडर यानी लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर, एलएचसी में इयॉन के आपस में प्रकाश की गति से टकराते हैं और एक दूसरे को सूक्ष्म कणों में तोड़ देते हैं. यह सब विशालकाय डिजिटल कैमरों में रिकॉर्ड किया जा रहा है.
तस्वीर: DW/F.Schmidt
कणों की तस्वीरें
यूरोपीय ऑर्गेनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च यानी सर्न का एलिस डिटेक्टर जिनेवा की एक बहुरंगी इमारत के नीचे 90 मीटर की गहराई पर है. एलिस एक विशाल डिजिटल कैमरा है जो ब्रह्मांड के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण की तस्वीर ले सकता है. यह वो कण हैं जिनसे परमाणु का नाभिक बना है.
तस्वीर: DW/F. Schmidt
हेलमेट जरूरी है
एलिस के अलावा तीन दूसरे कैमरे भी हैं जिनका नाम एटलस, सीएमएस और एलएचसीबी है. जो एलएचसी में कणों की टक्कर को दर्ज करते हैं. इन्हें देखने के लिए जमीन के भीतर पहुत गहराई में जाना हो गया. यइलाका फ्रेंच और स्विस आल्प्स की चट्टानों के नीचे है.
तस्वीर: DW/F.Schmidt
क्या दुर्बल कण बिग बैंग को मानते हैं?
जब प्रोटॉन या लेड आयन के कण आपस में प्रकाश की गति से टकराते हैं तो प्राथमिक कण पैदा होते हैं और ये वो कण हैं जो सीएमएस डिटेक्टर की तरह नजर आते हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारा ब्रह्मांड बिग बैंग के बाद इन्हीं कणों से बना है.
तस्वीर: 2011 CERN
सही गति पर सही दिशा
यह वो जगह है जहां लेड आयनों और हाइड्रोजन प्रोटॉन्स को गति दी जाती है. वे एक निर्वात नली के जरिए उड़ कर तेज रफ्तार ट्रेन की गति से आते हैं और विशाल विद्युत चुम्बकों के जरिए सही ट्रैक पर बनाए रखे जाते हैं. नली की परिधि 27 किलोमीटर है और इसमें उन चार बड़े संसूचकों के जरिए पहुंचा जा सकता है जहां कणों की टक्कर होती है.
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दुनिया का सबसे विशाल फ्रिज
कणों को ट्रैक पर रखने वाले विद्युत चुम्बक अतिचालक इनडेक्टर से बने हैं. केबल हर हाल में माइनस 271.3 डिग्री सेल्सियस तक ठंडे होने चाहिए, जिससे उनमें विद्युत प्रतिरोध बिल्कुल न हो. इन्हें ठंडा करने के लिए कोलाइडर बड़ी मात्रा में तरल हीलियम नलियों के जरिए भेजता है.
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छोटे चुंबक
एलएचसी पूरी तरह से वृत्ताकर नहीं है बल्कि लंबे लंबे मोड़ों से बना है, जिसमें चुंबक किरण को मोड़ते हैं. यह विद्युत चुंबक बहुत छोटे हैं. टक्कर से ठीक पहले वो किरण पर फोकस करते हैं और वो भी एक बिल्कुल निश्चित कोण से, जिससे कि दोनों कणों के टकराने की संभावना प्रबल हो. इसके बाद टक्कर संसूचक के एक दम बीच में होती है.
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बोतल में जहाज जैसा
संसूचक बहुमंजिली इमारतों जैसे बड़े हैं. लेकिन इन सबको पर्वतों के नीचे इस तरह के छोटे छोटे हिस्से में लाया गया है. इनके नीचे एक विशालयकाय गुफा है जिसमें सबको जोड़ा गया है.
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एक सेकेंड में 8000 फोटो
यह एलिस संसूचक है, जो मरम्मत के लिए खोला गया है. जह यह ऑपरेशन में होता है तो इयॉन किरणें इसके केंद्र में टकराती हैं. नए कण बनते हैं जो अलग अलग दिशाओं में सिलिकॉन चिप्स की कई परतों के सहारे बढ़ते हैं. ठीक वैसे ही जैसे कि डिजिटल कैमरे के सेंसर. चिप्स और दूसरे संसूचक कणों का रास्ता दर्ज करते हैं. एलिस हर सेकेंड 1.25 गीगाबाइट डिजिटल डाटा जमा कर सकता है.
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विद्युत चुम्बक से कणों की पहचान
यह नीला हिस्सा एक और विशाल विद्युत चुंबक है जो एलिस संसूचक का बहुत जरूरी हिस्सा है. यह वह क्षेत्र बनाता है जिसमें टकराव से बने कणों की पहचान हो पाती है. वैज्ञानिक कण के पथ की दिशा का अध्ययन करते हैं. उदाहरण के लिए इसके जरिए वो जान सकते हैं कि कण पर धनात्मक आवेश है या ऋणात्मक या फिर यह अनावेशित है.
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म्यूऑन को पकड़ने के लिए
एटलस संसूचक में एक खास पैमाना है जिसे म्यूऑन स्पेक्ट्रोमीटर कहा जाता है. यह संसूचक के हृदयस्थल में विशाल पंखों की तरह लगा है. इन पंखों के साहरे इलेक्ट्रॉन के एक भारी रिश्तेदार म्युऑन को पकड़ा जा सकता है. म्यूऑन को ढूंढना कठिन होता है क्योंकि वो सेकेंड के 20 लाखवें हिस्से जितने भर के लिए अस्तित्व में आते हैं.
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दूर से रखी जाती नजर
सारे संसूचकों का एक नियंत्रण कक्ष है, जैसे कि यह एटलस का है. कोलाइडर चल रहा हो तो किसी को भी जमीन के भीतर वाले हिस्से में रहने की इजाजत नहीं है. अनियंत्रित हुई प्रोटॉन किरण 500 किलो तांबे को पिघला सकती है और इससे निकली हीलियम गैस दम घोंट सकती है. कणों का प्रवाह रेडियोधर्मिता भी पैदा कर सकती है.
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क्या होगा आंकड़ों का
संसूचक हर सेकेंड में 4 करोड़ बार डाटा भेजते हैं, लेकिन चूंकि सारे टकरावों में वैज्ञानिकों की दिलचस्पी नहीं इसलिए इसे छांटना पड़ता है. आखिर में हर सेकेंड 100 टकराव के आंकड़े ही बचते हैं. हालांकि अब भी यह करीब 700 मेगाबाइट प्रति सेकेंड डाटा होती है जो कि एक सीडी में आ सकती है. सारे आंकड़े सबसे पहले सर्न के डाटा प्रोसेसिंग सेंटर में लाए जाते हैं.
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ग्लोबल कंप्यूटर नेटवर्क
सर्न हर साल जितने आंकड़े पैदा करता है अगर उन्हें सीडी में रखा जाए तो यह ढेर 20 किलोमीटर ऊंचा होगा. यहां तक कि टेप लाइब्रेरी भी इतने आंकड़ों को बोझ नहीं उठा सकती. इसलिए इन आंकड़ों को पूरी दुनिया में बांट दिया जाता है. 200 से ज्यादा यूनिवर्सिटी और रिसर्च इंस्टीट्यूट से मिल कर पूरी दुनिया में सर्न का कंप्यूटर नेटवर्क तैयार हुआ है जो उनके लिए डाटा प्रोसेसिंग सेंटर का काम कर रहे हैं.
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हर किसी के लिए आंकड़े
पूरी दुनिया के कण भौतिक शास्त्री सर्न के आंकड़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं. यह केंद्र खुद को यूनिवर्सिटी और रिसर्च इंस्टीट्यूट के लिए सेवा देने वाले के रूप में देखता है. एक साझी परियोजना जो सबके भले के लिए है.
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स्विट्जरलैंड और फ्रांस की सीमा पर स्थित यह कोलाइडर सबअटॉमिक पार्टिकल्स को लगभग प्रकाश की गति से दौड़ाता है और उन्हें एक-दूसरे से टकराता है. वैज्ञानिकों ने 2012 में इस प्रयोग की शुरुआत की थी जिसका मतलब ब्रह्मांड के निर्माण की शुरुआत करने वाले बिग-बैंग सिद्धांत की गहराई को समझना है. माना जाता है कि 14 अरब साल पहले बिग बैंग यानी विशाल धमाके से ब्रह्मांड के निर्माण की शुरुआत हुई थी. इस प्रयोग को हिग्स बोसोन नाम दिया गया और कोलाइडर में छोड़े गए सबअटॉमिक पार्टिकल्स को हिग्स बोसोन कहा गया.
हिग्स बोसोन ने बदल दी दुनिया
सर्न ने हिग्स बोसोन के बारे में दुनिया को जानकारी दी, जो विज्ञान जगत की सबसे बड़ी खोजों में गिना जाने लगा. इसकी वजह से जल्द ही विज्ञान की किताबों में बदलाव होने वाले हैं और भौतकी का पूरा तंत्र फिर से तैयार होने वाला है.
स्वाद बढ़ाने वाली चॉपस्टिक
दुनिया के कई देशों में खाना खाने के लिए चॉपस्टिक का इस्तेमाल होता है. जापानी वैज्ञानिकों ने ऐसी चॉपस्टिक बनाई हैं जो नमकीन स्वाद को बढ़ा देंगी. इसका स्वास्थ्य को भी फायदा होगा.
तस्वीर: Eskymaks/Zoonar/picture alliance
इलेक्ट्रॉनिक चॉपस्टिक
ये हैं इलेक्ट्रॉनिक चॉपस्टिक, जिन्हें जापान की मेजी यूनिवर्सिटी में होमेई मियाशिता ने एक निजी कंपनी किरीन होल्डिंग्स के साथ मिलकर बनाया है. ये कंप्यूटर आधारित चॉपस्टिक हैं जो नमकीन स्वाद को बढ़ा देती हैं.
तस्वीर: Issei Kato/REUTERS
स्वास्थ्य के लिए
वैज्ञानिकों का कहना है कि ये चॉपस्टिक उन लोगों के लिए खासतौर पर फायदेमंद होंगी जिन्हें स्वास्थ्य कारणों से सोडियम कम खाना है. उन्हें स्वाद भी आएगा और नमक भी नहीं खाना होगा.
तस्वीर: Issei Kato/REUTERS
कलाई पर कंप्यूटर
ये चॉपस्टिक प्रयोग करते वक्त कलाई पर बैंड बांधना होता है जो एक छोटा कंप्यूटर है. चॉपस्टिक खाने में सोडियम आयन चुनकर उनका स्वाद सीधे मुंह तक पहुंच देती हैं. इससे नमक का स्वाद डेढ़ गुना तक बढ़ जाता है.
तस्वीर: Issei Kato/REUTERS
चॉपस्टिक का इतिहास
पारंपरिक तौर पर बांस या लकड़ी की बनी मोटी तीलियों को चॉपस्टिक के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है. ये शांग वंश के साम्राज्य के दौरान 1766 से 1122 ईस्वी के बीच में चीन में विकसित हुईं और फिर पूरे पूर्व एशिया में फैल गईं.
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जापान में चॉपस्टिक
कोरिया, वियतनाम और जापान में चॉपस्टिक 500 ईस्वी में पहुंचीं. पहले जापान में इनका इस्तेमाल सिर्फ धार्मिक क्रियाकलापों में होता था.
तस्वीर: Karl Allgaeuer/Zoonar/picture alliance
चॉपस्टिक के विश्वास
खाने के इस उपकरण के साथ बहुत से मिथक भी जुड़े हैं. जैसे कुछ लोग चांदी की चॉपस्टिक प्रयोग करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि अगर खाना जहरीला होगा तो ये चॉपस्टिक काली हो जाएंगी और उन्हें पता चल जाएगा. कुछ एशियाई देशों में कहा जाता है कि यदि आप गैर बराबर चॉपस्टिक प्रयोग करते हैं तो आपकी नाव या विमान छूट जाएंगे.
तस्वीर: Eskymaks/Zoonar/picture alliance
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इंजीनियर जहां तकनीकी मामलों पर नजर डाल रहे हैं, वहीं भौतिकशास्त्री आंकड़ों के पहाड़ के बीच बैठे माथापच्ची कर रहे हैं. लार्ज हाइड्रोजन कोलाइडर ने 2010 के बाद इन आंकड़ों को तैयार किया है. सर्न के तिजियानो कंपोरेसी ने कहा था, "जिन चीजों के बारे में आसानी से पता लग सकता था, वे हो गए हैं. अब हम दोबारा से पूरी प्रक्रिया पर नजर डाल रहे हैं. हम हमेशा कहते हैं कि खगोलशास्त्रियों का काम आसान होता है क्योंकि उन्हें सब कुछ दिखता है."
हाइड्रोजन कोलाइडर में प्रयोग के दौरान टकराव से ऊर्जा द्रव्य में बदला. ऐसा इसलिए किया गया ताकि ब्रह्मांड में फैले अणुओं से छोटे कणों के बारे में पता लग सके, ऐसा प्रयोग जो इस ब्रह्मांड की उप्तपत्ति के बारे में भी बता सकता है. हाइड्रोजन कोलाइडर जब पूरे जोर शोर से काम कर रहा था, तो प्रति सेकेंड 55 करोड़ टकराव हो रहे थे.
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लगातार बदलता एलएचसी
सर्न में पहले 1989 में लार्ज इलेक्ट्रॉन पोजीट्रॉन कोलाइडर लगा, जिसे 2000 में बदल दिया गया. उसके बाद यहां लार्ज हाइड्रोजन कोलाइडर लगाया गया, जिसे 2008 में शुरू किया गया. उस वक्त दुनिया में यह अफवाह भी उड़ी कि इसके शुरू होने से दुनिया खत्म हो सकती है.
लेकिन इसकी शुरुआत बहुत अच्छी नहीं रही. खराबी आने के बाद प्रयोग को एक साल टालना पड़ा. आखिरकार 2012 में वैज्ञानिकों ने उस कण का एलान किया, जिसके लिए पूरा प्रयोग शुरू किया गया था.
विशालकाय प्रयोग में लगातार नए आंकड़े मिले. भौतिक विज्ञानी जोएल गोल्डश्टाइन का कहना है, "जब भी किसी को नया आंकड़ा मिलता है, उसके पास शैंपेन की बोतल खोलने का बहाना होता है." पास में खाली बोतलों की ढेर दिखाते हुए उन्होंने कहा, "बताइए, हमारे पास जगह भी कम पड़ती जा रही है."